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१० तत्त्वार्थटीका-श्रीलक्ष्मीदेव गृहस्थाचार्य । ११ तात्पर्यतात्त्वार्थकीटीका-श्रीअभयनन्दिसूरि (तृतीय) प्रणीत । १२ तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यान-( कर्णाटकीभाषामें )
भाषाटीकायें । १३ सर्वार्थसिद्धिभाषा--पं० जयचन्द्रजीरचित । श्लो० सं० १०००० । १४ अर्थप्रकाशिका-पं० सदासुखदासजीरचित । श्लो. सं. १०८७२ । १५ राजवार्तिक-पं०फतहलालजी और पं० पन्नालालजी रचित । १६ सूत्रदशाध्याय-(श्रुतसागरीके अनुसार ) पं० टेकचन्द्रजी प्रणीत । १७ सूत्रदशाध्याय वचनिका-पं० जयवन्तजी । श्लो० सं० ४२७० । १८" " पं० शिवचन्द्रजी । श्लो० सं० ४०००।
पं० सदासुखजी । श्लो० सं० १९०० । २० सूत्रदशाध्याय वचनिका-पं० फतहलालजी ।
पं० देवीदासजी । पं० मकरन्दजी।
पं० प्रभाचन्द्रजी। २४ , "
पं० वख्तावर-रतनलालजी । २५ सूत्रदशाध्याय (छन्दोबद्ध ) पं० हीरालालजी । २६, , , पं० छोटेलालजी। २७ तत्त्वार्थबोध ,, , पं० विधीचन्दजी (बुधजन)।
श्वेताम्बरसम्प्रदाय । १ गजगन्धहस्तिमहाभाष्य-श्रीसिद्धसेनदिवाकर । २ श्रीसिद्धसेनगणिरचितटीका-(श्लोकसंख्या १८२८२०)
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१ श्रीमभयनन्दिसूरि तीसरे वि० सं०७७५ में हुए हैं। आपने जैनेन्द्रव्याकरणकी बृहद्वृत्तिकी रचना की है। २ यह व्याख्यान श्रीलक्ष्मीसेन भट्टारक पट्टाचार्य कोल्हापुरके पुस्तुकालयमें पेटी नं. १४ में मौजूद है।
३ इस बातसे कोई सज्जन अप्रसन्न न होवें कि, यहांपर दिगम्बरियोंकी अपेक्षा श्वेताम्बरी टीकाग्रन्थ बहुत कम बतलाये गये हैं। क्योंकि हमारा अभिप्राय किसीको निम्नोन्नत बतलानेका नहीं है, जो कुछ संग्रह हो सका, हमने वही किया है । श्वेताम्बरीय सम्प्रदायमें टीका ग्रन्थोंकी कमी नहीं है, परन्तु श्वेताम्बरीयसज्जनोंका ध्यान इस
ओर कम होनेसे परिश्रम करनेपर भी हमको उनके नाम नहीं मिल सके, यह खेदकी बात है । शीघ्रताके कारण इस विषयकी खोजकेलिये बहुत समय नहीं दिया जा सका, सो पाठकगण क्षमा करें। ___ ४ दक्षिणदेशके प्रतिष्ठानपुर नामक नगरमें महावीर संवत् ५०० के अनुमान श्रीसिद्धसेनदिवाकरका स्वर्गवास हुआ था, ऐसा कहा जाता है । द्वात्रिंशतिका, एकविंशतिगुणस्थानप्रकरण, शाश्वतजिनस्तुति,
और कल्याणमन्दिरस्तोत्र आदि ग्रन्थ उक्त आचार्यके बनाये हुए प्रसिद्ध हैं । परन्तु महापुराणकारके "कवयो । सिद्धसेनादि" पदसे स्मरण किये हुए सिद्धसेन इनसे पृथक् प्रतीत होते हैं।
५ यथा-अष्टादशसहस्राणि द्वेशते च तथा परे । अशीतिरधिका द्वाभ्यां टीकायाः श्लोकसंग्रहः । इति ।
६ ऐसा प्रसिद्ध है कि, यह टीका श्रीहरिभद्रसूरिने प्रारंभ की थी, परन्तु उनका देहोत्सर्ग हो जानेसे उनके शिष्यवर्य श्रीयशोभद्रसूरिन पूर्ण की थी।
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