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३ तत्त्वार्थटीका-श्रीहरिभद्रसूरिरचित । (श्लो० सं० ११०००) ४ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम-श्रीउमाखातिवाचक । दिगम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियोंके अनुसार, कार्तिकशुक्ला ८ विक्रमशक १०१ में भगवदुमास्वामि नंदिसंघके पट पर विराजमान हुए थे । उन्होंने चालीसवर्ष ८ दिन आचार्यपदपर सुशोभित रहके परमधरमका उपदेश किया । १९ वर्षकी अल्पवयमें आपने जिनदीक्षा ग्रहण की और २५ वर्ष दीक्षित रहनेके पश्चात् आचार्य पद लाभ किया । इस प्रकार विक्रम सं० ५७ के अनुमान
आपने जन्मलेकर इस देशको पवित्र किया था, ऐसा जान पड़ता है । भगवान् महावीर तीर्थकरके निर्वाणके अनन्तर आचार्यपरम्पराका क्रम पट्टावलीमें इस प्रकार दिया है।
विक्रमशकसे पूर्व । केवली-गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, श्रुतकेवली-विष्णुकुमार, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाहु ।।
ग्यारह अंग और दशपूर्वके पाठी-विशाखाचार्य, नक्षत्राचार्य, नागसेनाचार्य, जयसेनाचार्य, सिद्धार्थाचार्य, धृतिसेनाचार्य, विजयाचार्य, बुद्धिलिंगाचार्य, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य ।
ग्यारह अंगके पाठी-नक्षत्राचार्य (दूसरे ), जयपालाचार्य, पांडवाचार्य, कंसाचार्य । दशअंग-सुभद्राचार्य । नवअंग-यशोभद्राचार्य ।
विक्रमशकके पश्चात् । आठअंगके पाठी-भद्रबाह्वाचार्य (दूसरे) विक्रमशक ४ चैत्रसुदी १४ को आचार्य पदपर आरूढ हुए। सातअंग-लोहाचार्य ( इनके समयमें काष्ठासंघ स्थापित हुआ )। एक अंग-अर्हद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवलि ।
आचार्य भूतवलिके पश्चात् अंगज्ञानका विच्छेद हो गया। उनके पीछे फागुन सुदी १४ विक्रमशक २६ में गुप्तिगुप्ति, आश्विन सुदी १४ वि. श. ३६ को माघनन्दि, फागुन सुदी १४ वि. श.४० में जिनचन्द्र, और पौषवदी ८ वि. श. ४९ में अनेक ग्रन्थोंके रचयिता भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य क्रमसे आचार्य पदपर आरूढ हुए और उनके शिष्य भगवदुमास्वामी वि. श. १०१ में हुए, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है।
१ महावीर भगवान्के निर्वाणके विषयमें लोगोंके अनेक मत हैं, परन्तु हालमें श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें प्रायः यह निर्णय हो गया है कि, विक्रमशकसे ६०५ वर्ष पहले वीर भगवान्का निर्वाण हुआ था।
२ विक्रमशकसे शालिवाहन अथवा शक संवत् चलानेवाले राजासे अभिप्राय है । दिगम्वरीय जैनग्रन्थों में प्रायः सर्वत्र इसी संवत्का प्रयोग मिलता है । इसे विक्रमसंवत् न समझ लेना चाहिये । शालिवाहनके विक्रमादित्यादि अपरनाम थे। परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो संवत् लिखा जाता है, वह विक्रम ही है । और इसलिये उनके अनुसार विक्रमसे ४७० वर्ष पहिले भगवान्का निर्वाण ठीक है।
३ विक्रमसंवत्के विषय आजकलके पाश्चात्य विद्वानोंके अनेक मत हैं। उनमेंसे वहुतसे यह कहते हैं कि, पहले यह संवत् शक जातिके राजाओंने चलाया था, पीछेसे संवत् ६०० में विक्रमादित्य प्रतापी राजा हुए, सो उन्होंने
उसीमें अपना नाम जोड दिया, परन्तु यह भ्रममात्र है। Jain Education International For Personal & Private Use Only
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