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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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का ज्ञान ) अभिलषित अर्थात् अपनेको अभीष्ट पदार्थकी प्राप्ति, तथा अनिष्टकी अ इत्यादि सामर्थ्यविशेष सिद्धियां प्राप्त होती हैं । और वाचिक ( वाग्जन्य सामर्थ्य ) वाणीमें क्षीरस्राविता अर्थात् ऐसा मिष्ट भाषण मानो वचनसे दुग्धप्रवाह झरता है, मधु आस्रावित्व, अर्थात् वचनसे मानो मधुप्रवाह स्रवीभूत ( वहता वा झरता ) होता है, प्रबल वादियोंसे भी वाद करनेका सामर्थ्यविशेष, सर्वरुतज्ञान अर्थात् सब पशु पक्षी आदिके शब्दों का ज्ञान । और सब जीवोंका अवबोधन सब जीवमात्रका ज्ञान वा सबको बोधन ( ज्ञान प्रदान करने ) का सामर्थ्यविशेष, इत्यादि सामर्थ्यविशेष वाचिक सिद्ध होता है । तथा विद्याधरत्व ( विद्याधरपदप्राप्तिसामर्थ्य ) और भिन्न अभिन्न अक्षर चतुर्दश पदत्व, इत्यादि सिद्धिविशेष उस जीवको प्राप्त होते हैं ।
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ततोऽस्य निस्तृष्णत्वात्तेष्वनभिष्वक्तस्य मोहक्षपकपरिणामावस्थस्याष्टाविंशतिविधं मोहनीयं निरवशेषतः प्रहीयते । ततश्छद्मस्थवीतरागत्वं प्राप्तस्यान्तर्मुहूर्तेन ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणि युगपदशेषतः प्रहीयन्ते । ततः संसारबीजबन्धनिर्मुक्तः फलबन्धनमोक्षापेक्ष यथाख्यातसंयतो जिनः केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी शुद्धो बुद्धः कृतकृत्यः स्नातको भवति । ततो वेदनीयनामगोत्रायुष्कक्षयात्फलबन्धननिर्मुक्तो निर्दग्धपूर्वोपात्तेन्धनो निरुपादान इवाग्निः पूवपात्तभववियोगाद्धेत्वभावाश्चोत्तरस्याप्रादुर्भावाच्छान्तः संसारसुखमतीत्यात्यन्तिकमैकान्तिकं निरुपमं निरतिशयं नित्यं निर्वाणसुखमवाप्नोतीति ॥
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और इसके पश्चात् तृष्णाके अभाव से उन पूर्वकथित अणिमा आदि सिद्धियोंमें आसक्तता वा सङ्गरहित, तथा मोहक्षपक ( मोहनीय कर्मको नाश करनेवाले) परिणाम भावमें स्थित इस जीवके अठ्ठाईस ( २८ ) प्रकार के मोहनीय कर्म सर्वथा नाशको प्राप्त होते हैं । और इसके अनन्तर छद्मस्थ वीतरागता दशाको प्राप्त इस जीवके अन्तर्मुहूर्त कालमें ही ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय, ये तीनो कर्मप्रकृतियां एक काल मेंही सर्वथा क्षीण ( नष्ट हो जाती हैं । इसके अनन्तर संसार के बीजरूप बन्धन से विनिर्मुक्त, फलरूप बन्धनसे मोक्षकी अपेक्षा करनेवाला, यथाख्यात संयममें संयत, अर्थात् यथाख्यात चारित्ररूप संयमसहित जिन केवली ( केवलज्ञानसम्पन्न ) सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ( सर्वद्रष्टा ), शुद्ध, बुद्ध, कृतकृत्य ( जो कुछ करना चाहिये था वह सब कर चुकनेवाला ), स्नातक रूप यह जीव होता है | और इसके अनन्तर वेदनीय, नाम, गोत्र, तथा आयुः कर्मके क्षय होनेसे फलबन्धनसे सर्वथा विनिर्मुक्त ( छूटा हुआ ), पूर्व कालमें ग्रहण हुए इन्धनको भस्म करनेवाला उपादान कारण ( सर्वथा इन्धन ) शून्य अग्नि के समान, तथा पूर्वकालमें ग्रहण किये हुए जन्मोंके वियोगसे तथा हेतु ( निमित्त ) के अभावसे आगेके जन्मोंके प्रादुर्भाव होनेसे सर्वथा शान्त, और संसारसुखको अतिक्रमण ( लंघन ) करके आत्यन्तिक (जिसका कभी अन्त न हो ऐसा ), ऐकान्तिक ( नित्य वा सर्वदा स्थायी )
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