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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भगवान् हैं वेही लोकमें अन्य प्राणियोंके पूज्यदेवर्षिनरेन्द्रोसेभी पूजाके योग्य हैं. ॥ ७ ॥ अर्हन् भगवान्की पूजासे मनकी प्रसन्नता प्राप्त होती है, और मनके प्रसाद अर्थात् प्रसन्नतासे समाधि प्राप्त होती है, तथा समाधिरूप योगसे निःश्रयस मोक्ष प्राप्त होता है; इस कारणसे अर्हन् भगवान्की पूजाही इस लोकमें उत्तम वस्तु है. ( क्योंकि उसीके द्वारा मोक्षपदकाभी लाभ होता है) ॥ ८ ॥ तीर्थप्रवर्तनरूप (संसारसे उद्धार करनेवाले) फलदायक जो तीर्थकरनाम कर्म शास्त्रमें कहा गया है उसीके उदयसे यद्यपि तीर्थकर अर्हन् भगवान् कृतार्थ हैं, तथापि तीर्थकी प्रवृत्ति अर्थात् संसारसागरसे पार उतारनेवाले. धर्मका उपदेश करतेही हैं. ॥९॥ उसी तीर्थकरनामकर्मसे, जिस रीतिसे सूर्य लोकमें प्रकाश करता है उसी रीतिसे तीर्थके प्रवर्तनके अर्थ तीर्थकर लोकमें प्रवृत्त होते हैं. ॥ १० ॥ जो कि अनेक जन्मोंमें शुभ कर्मोंके निरन्तर सेवनसे भावित अर्थात् पूजित भाव, सिद्धार्थ नरेन्द्रोंके कुलमें प्रदीपके समान समुज्वल ज्ञातसंज्ञक इक्ष्वाकुवंशके क्षत्रियोंमें, जन्म लिया. ॥ ११ ॥ तथा अति शुद्ध, और अप्रतिपाती पूर्व जन्मोंमें प्राप्त, मति, श्रुत, तथा अवधि, इन तीन ज्ञानोंसे युक्त होकर ऐसे शोभित हुये जैसे शैत्यद्युति (उष्णतारहित प्रकाश) तथा कान्तिगुणोंसे युक्त होनेसें चन्द्रमा ॥ १२ ॥ तथा शुभ, सार, सत्व, संहनन (शरीररचनाविशेष) वीर्य, और माहात्म्यरूप गुणोंसे युक्त, तथा त्रिदश (अर्थात् शास्त्रोक्त तीस) गुणोंसहित जगत्में महावीरस्वामी इस नामसे प्रसिद्ध (इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुये.) ॥ १३ ॥ स्वयमेव सप्त तत्वोंके ज्ञाता, निराकुलताके कारणोंसे जिनका अचल सत्व अभ्युदयको प्राप्त था, और इन्द्रसहित लोकान्तिक देव जिनके शुभ सत्वकी प्रशंसा किया करते थे ऐसे वे महावीरस्वामी थे. ॥ १४ ॥ तथा जन्म, वृद्धावस्था और मरणसे पीडित इस असार संसारको अशरण देखके अपने उत्तम विशाल राज्यको त्यागकर वे बुद्धिमान् महावीरस्वामी शान्तिके लिये वनमें चले गये. ॥ १५॥ और अशुभ कर्मोको दमन करनेवाला तथा मोक्षका साधक श्रमणों (जैनमतके मुनियों) के लिङ्ग (चिन्ह) धारण करके, सामायिक कर्मोंको करतेहुये विधिपूर्वक सब व्रतोंको करके, ॥ १६ ॥ सम्यग्ज्ञान, चारित्र, संवर, तप, समाधि, और बल इनसे तो युक्त और मान, मोह, लोभ तथा माया इन चार अशुभ कर्मोंका सर्वथा घात करके, ॥ १७ ॥ पश्चात् स्वयमेव वे प्रभु अनन्त, ज्ञान और दर्शन आदिकी प्राप्तिसे कृतार्थ होनेपरभी इस तीर्थ (जैनधर्म) का उपदेश किया. ॥ १८ ॥ प्रथम प्रमाणनयके अनुसार दो प्रकार, पुनः अनेक प्रकार, वा द्वादशभेदसहित तप आदि धर्म, जो कि
१ यह अर्थ "सत्वहिताऽभ्युद्यताचलितसत्वः” इस पदका कियागया है परन्तु हमारी समझमें इस पदका "जीवोंके हितकेवास्ते अभ्युद्यत और अविचलित सत्त्वको धारण करनेवाले" ऐसा अर्थ प्रतीत होता है. संशोधक.
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