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'सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
शिरसा गिरिं विभित्सेदुञ्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोर्भ्याम् | प्रतितीर्षेच समुद्रं मित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण ॥ २४ ॥ व्योम्नीन्दुं चित्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्यानिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ।। २५ ।। खद्योतकप्रभाभिः सोऽभिबुभूषेच्च भास्करं मोहात् । asaमहाग्रन्थार्थं जिनवचनं संजिघृक्षेत ॥ २६ ॥ एकमपि तु जिनवचनाद्यस्मान्निर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रपदसिद्धाः ।। २७ । तस्मात्तत्प्रामाण्यात् समासतो व्यासतश्च जिनवचनम् । श्रेय इति निर्विचारं ग्राह्यं धार्यं च वाच्यं च ॥ २८ ॥ न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ।। २९ ॥ श्रममविचिन्त्यात्मगतं तस्माच्छ्रेयः सदोपदेष्टव्यम् । आत्मानं च परं च हि हितोपदेष्टानुगृह्णाति ॥ ३० ॥ नर्ते च मोक्षमार्गाद्धितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥ ३१ ॥
॥ इति सम्बन्धकारिकाः समाप्ताः ॥
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जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे शुद्ध ज्ञान तथा ( उसकेद्वारा इस संसार से ) विरतिको प्राप्त करता है, (संसार में ) अनेक दुःखों का कारण होनेपर भी यह जन्म, उस मनुष्यको उत्तम लाभदायक है. ॥ १ ॥ अनेक प्रकारके कर्मोंसे उत्पन्न हुवे क्लेशोंसे निरन्तर संबद्ध इस जन्म में ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि जिस्से कर्मजनित क्लेशरहित मोक्षरूप परमार्थ सिद्ध हो. ॥ २ ॥ यदि मोक्षरूप परमार्थका लाभ न हो, तथा जन्मके आरम्भकारी कषायरूप दोषोंकी अस्तितामें, ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि, जिससे कुशल अर्थात् शुभप्रयोजनसहित, और निन्दारहित ही कर्म्म हो. ॥ ३ ॥ अत्यन्त अधम मनुष्य, इस लोक तथा परलोकमें दुःखदायक कर्मोंका ही आरंभ करता है, अधम मनुष्य, इस लोकमें केवल फलदायक कर्मोंका आरम्भ करता है, और विमध्यम श्रेणीका मनुष्य, उभय लोकमें फलदायक कर्मोंको करता है; और मध्यमजन परलोक में हितकारी क्रियाओंमें सदा प्रवृत रहता है. परन्तु विशिष्टबुद्धि उत्तम मनुष्य तो केवल मोक्षकेही लिये निरन्तर प्रयत्न करता है. ॥ ४५ ॥ और जो मनुष्य, उत्तम धर्मको प्राप्त करके स्वयं कृतार्थ हो गया है, और अन्य मनुष्योंको धर्मका उपदेश देता है, वह निरंतर उत्तम जनोंसे भी अति उत्तम तथा सबका पूजनीय है || ६ || इस हेतुसे उत्तमोत्तम जो अर्हन्
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