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तत्र
तहां
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१६५
सम्यग्दृष्टेरती -
शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवाः
चाराः ॥ १८ ॥
सूत्रार्थ — शंकाआदि पांच सम्यग्दृष्टि पुरुषके अतिचार हैं ॥ १ ॥
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भाष्यम् – शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवः इत्येते पञ्च सम्यग्दृष्टेरती - चारा भवन्ति । अतिचारो व्यतिक्रमः स्खलनमित्यनर्थान्तरम् ॥ अधिगतजीवाजीवादितत्त्वस्यापि भगवतः शासनं भावतोऽभिप्रपन्नस्यासंहार्यमतेः सम्यग्दृष्टेरर्हत्प्रोक्तेषु अत्यन्तसूक्ष्मेध्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थेषु यः संदेहो भवति एवं स्यादेवं न स्यादिति सा शङ्का ॥ ऐहलौकिकपारलौकिकेषु विषयेष्वाशंसा काङ्क्षा । सोऽतिचारः सम्यग्दृष्टेः । कुतः । काङ्क्षिता विचारितगुणदोषः समयमतिक्रामति ॥ विचिकित्सा नाम इदमप्यस्तीदमपीति मतिविप्लुतिः ॥ अन्यदृष्टिरित्यच्छासनव्यतिरिक्तां दृष्टिमाह । सा द्विविधा । अभिगृहीता अनभिगृहीता च । तद्युक्तानां क्रियावादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकानां च प्रशंसासंस्तवौ सम्यग्दृष्टेरतिचार इति । अत्राह । प्रशंसासंस्तवयोः कः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । ज्ञानदर्शनगुणप्रकर्षोद्भावनं भावतः प्रशंसा । संस्तवस्तु सोपधं निरुपधं 'भूताभूतगुणवचनमिति ॥
विशेषव्याख्या - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा तथा संस्तव, ये पांच सम्यग्दृष्टि पुरुषके अतिचार ( दोष ) हैं । अतिचार, व्यतिक्रम तथा स्खलन, ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । जीव अजीवआदि तत्त्वोंके ज्ञाता भगवान् के शासनको ' भावसे अभिप्राप्त और असंहार्यमति ( असंहृतबुद्धि ) अर्थात् जिसकी बुद्धि सब स्थानोंसे हटके जिनप्रोक्त पदार्थोंमें दृढतासे निःसन्देहपूर्वक स्थिर नहीं हुई है ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुषको अर्हत् भगवान् से कथित अतिसूक्ष्म, अतीन्द्रिय तथा केवल आगमप्रमाणसे ग्राह्य ( जाननेयोग्य ) पदार्थोंमें जो सन्देह है कि ऐसा भगवान् ने कहा है वैसा हो सकता है, वा नहीं, ऐसा जो विचार है उसको शंका कहते हैं । तथा इस लोकके और परलोकके विषयोंमें जो प्राप्त होनेकी अभिलाषा है वह कांक्षा है | वह शंका तथा कांक्षा करनेवाला दोनो सम्यग्दृष्टिके अतिचार हैं । क्योंकि - जिसने गुणदोषको नहीं विचारा है ऐसा पुरुष समयका उल्लंघन करता है । और विचिकित्सा वह कि - ऐसा भी है और ऐसभी है, अर्थात् अर्हद् भगवान् ने जो कहा है यह भी यथार्थ है और अन्यदृष्टि अर्थात् कपिल आदिका जो कथन है यह भी यथार्थ है, इस प्रकारकी मति ( भ्रांति ) होना । तथा अन्य दृष्टिसे यहां अर्हत्शासन से भिन्नदृष्टि से तात्पर्य है । वह अन्यदृष्टि दो प्रकारकी होती है, एक तो अभिगृहीत (स्वीकृत ) और द्वितीय ( दूसरी ) अनभिगृहीत ( अस्वीकृत ) । उस अन्यदृष्टिसे युक्त क्रियावादी हों अथवा अक्रियावादी हों, तथा अज्ञानी ( जिनके
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