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________________ तत्त्वार्थशास्त्र बनाया है पीछे अपने २ मान्य पदार्थों के प्रतिपादनके लिये आचायाँको पाठभेद करना पड़ा ! प्रायः ऐसा होता है कि, जो ग्रन्थ बहुत उत्तम होता है, तथा जिसका कर्ता अतिशय मान्य और प्रतिभाशाली प्रसिद्ध होता है, उस ग्रन्थ तथा आचार्यको प्रत्येक शाखाके लोग अपनाया चाहते हैं, और थोड़ा बहुत पाठभेद करके वे अपने मनोरथको पूर्ण करते हैं। मैं समझता हूं, तत्त्वार्थसूत्रमें पाठभेद इसी खेंचातानीसे हुआ है, और आज इस बातका निर्णय करना कठिन हो गया है कि, आचार्यकी असली कृति कौन है । अस्तु । __ पाठभेदका जो कोष्टक दिया गया है, उसमें केवल दिगम्बरसम्प्रदायमान्यसूत्रों और इस भाष्यके सूत्रोंका विभेद बतलाया है । परन्तु कहते हैं कि, श्वेताम्बराम्नायके अन्य टीकाग्रन्थों में और इस भाष्यमें भी बहुत कुछ सूत्रोंका पाठभेद हैं । जो हो, मुझे अन्यटीकाग्रन्थोंके देखनेका अवकाश नहीं मिला, इसलिये कुछ नहीं कह सकता । परन्तु दिगम्बरी टीकाकारोंका सूत्रपाठमें एक मत है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य। पहले जिन टीकाग्रन्थोंकी सूची दी गई है, उन सबमेंसे जहांतक मैं जानता हूं, संस्कृत सर्वार्थसिद्धि तथा और दोतीन भाषाटीका ग्रन्थोंको छोड़के शेष सब अप्रकाशित हैं। और उक्त दो तीन जो छपे हुए हैं, वे केवल दिगम्बर सम्प्रदायके पदार्थोंके कहनेवाले हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदायके टीकाग्रन्थ अभीतक कोई भी प्रकाशित नहीं हुए, और इस कारण उनके प्रकाशित होनेकी आवश्यकता थी। हर्षका विषय है कि, इसी बीचमें बंगालकी एशियाटिक सुसाइटीने अपनी संस्कृतग्रन्थ सीरीजमें तत्त्वार्थाधिगमभाष्य प्रकाशित करके जैनसम्प्रदायका गौरव बढ़ानेकी कृपा की । परन्तु हमारे समाजमें संस्कृतविद्याका एक प्रकारसे अभाव होनेके कारण उक्त मूल ग्रन्थ कुछ लाभ नहीं पहुंचा सकता था, अतएव श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलके स्वामियोंने व्याकरणाचार्य पं० ठाकुरप्रसादजीसे इसकी सार्वदेशिक हिन्दी भाषाटीका करानेका मनोरथ किया, और हर्षका विषय है कि, वह पूर्ण होके आज आपके समक्ष प्रस्तुत है। __ इस तत्त्वार्थाधिगम भाष्यके कर्ता श्रीउमास्वातिवाचक हैं । और अनेक विद्वानोंका मत है कि, मूल तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वाति ही भाष्यके कर्ता हैं, अर्थात् श्रीमदुमास्वातिने स्वयं ही अपने ग्रन्थपर उक्त भाष्यके रचनेकी कृपा थी, परन्तु ग्रन्थान्तरोंसे इस विषयका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता, इसलिये सहसा विश्वास करनेको जी नहीं चाहता । ग्रन्थकी रचनाप्रणाली और प्रतिपाद्य विषयकी असूक्ष्मता पर ध्यान देनेसे में समझता हूं, बहुत थोड़े विद्वान् इस बातको स्वीकार करेंगे कि, यह भाष्य मूलग्रन्थकर्ताका ही है। क्योंकि मूलग्रन्थकर्ताकी टीका कुछ विलक्षण ही होती है। वह ऐसे सूक्ष्म विषयोंपर अपनी लेखनी घिसता है, जिसको अन्य विद्वान् कहनेका सामर्थ्य नहीं रखते । सो वह बात इस ग्रन्थमें दिखाई नहीं देती। और कदाचित् मेरा यह भ्रम मात्र हो, तो विद्वज्जन निर्णयकरें, मेरे लेखको किसी प्रकार पक्षपातपूर्ण न समझें । ___ अब मैं इस विषयको यहीं समाप्त करता हूं, और साथ ही एक दो प्रार्थना किये देता हूं कि, जैनसमाजमें अच्छे विद्वानोंका अभाव होनेके कारण इस ग्रन्थकी हिन्दीटीका एक भिन्नधर्मी विद्वान्से बनवाई है । यद्यपि वे जैनधर्मके तत्त्वोंके जाननेवाले तथा परिचयी हैं, परन्तु भिन्नधर्मी होनेके कारण यदि कहींपर टीकामें भूलें रह गई हों, और ऐसा संभव भी है तो आप लोग मूलके अनुसार १ सर्वार्थसिद्धिभाषा रायचन्द्रशास्त्रमालाद्वारा शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली है। .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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