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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अब कहते हैं कि आपने पूर्वप्रकरणमें यह कहा है कि " धर्म आदि चार तथा जीव द्रव्य हैं" ( अ. ५ सू. २ ) सो क्या केवल उद्देशमात्र ( नामसंकीर्तन )सेही द्रव्यकी प्रसिद्धि (सिद्धि) है अथवा लक्षणसेभी ? इस हेतुसे कहते हैं कि नहीं, लक्षणसे भी द्रव्य ( पदार्थ ) की प्रसिद्धि है, इस कारण से लक्षणबोधक सूत्र आगे कहते हैंगुणपर्यावद द्रव्यम् ॥ ३७ ॥
सूत्रार्थ - जिसमें गुण तथा पर्याय हों वह द्रव्य है ।
भाष्यम् गुणान् लक्षणतो वक्ष्यामः । भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः । तदुभयं यत्र विद्यते तद्द्रव्यम् । गुणपर्याया अस्य सन्त्यस्मिन्वा सन्तीति गुणपर्यायवत् ॥
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विशेषव्याख्या—गुणपर्यायवत्त्व, अर्थात् “गुणवत्त्वे सति पर्यायवत्त्वं द्रव्यत्वम्” गुणवान् हो जिसमें कोई न कोई पर्याय हो वह द्रव्य है । गुणोंको लक्षणपूर्वक आगे कहैंगे । और भावान्तर तथा संज्ञान्तर होना यह पर्याय है । अर्थात् एक भावसे दूसरा भाव हो जाय तथा एक संज्ञासे दूसरी संज्ञा हो जाय यह पर्याय है । जैसे - मनुष्यसंज्ञासे देवसंज्ञा होजाना । ये दोनों अर्थात् गुण और पर्याय जिसके हैं वा जिसमें हैं वही द्रव्य है ॥ ३७ ॥
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कालचेत्येके || ३८ ॥ भाष्यम् - एके त्वाचार्या व्याचक्षते कालोऽपि द्रव्यमिति ।।
सूत्रार्थ — विशेषव्याख्या - कोई एक आचार्य ऐसा कहते हैं कि कालभी द्रव्य है ॥ ३८ ॥
सोऽनन्तसमयः ॥ ३९ ॥
भाष्यम् - स चैष कालोऽनन्तसमयः । तत्रैक एव वर्तमानसमयः । अतीतानागतयो - स्त्वानन्त्यम् ॥
सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - वह काल अनन्त समयरूप है । उसमें वर्तमानकाल तो एकही है। किन्तु अतीत (भूत) और अनागत ( भविष्यत्) काल अनन्त हैं ॥ ३९ ॥ अत्राह । उक्तं भवता गुणपर्यायवद्द्रव्यमिति । तत्र के गुणा इति । अत्रोच्यते
अब कहते हैं कि आपने यह वर्णन किया है कि गुण तथा पर्याय जिसमें हों, वा गुणपर्याय जिसके हों वह द्रव्य है ( अ. ५ सू. ३७ ). सो वे गुण कौन हैं ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र कहते हैं
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४० ॥
सूत्रार्थ – जो द्रव्यके आश्रयमें रहैं, और स्वयं निर्गुण हों वे गुण हैं ।
भाष्यम् – द्रव्यमेषामाश्रय इति द्रव्याश्रयाः । नैषां गुणाः सन्तीति निर्गुणा: ।
विशेषव्याख्या - जिनका आश्रय अर्थात् रहनेका स्थान द्रव्य हो, और स्वयं निर्गुण
हों, अर्थात् उनमें गुण न हों वे गुण हैं ॥ ४० ॥
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