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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । योंके अल्पसंक्लेश है । और स्थितिप्रभावादिसे भी अधिक अधिक हैं, ऐसा आगे कहेंगे (अ० ४ सू० २१)।
परेऽप्रवीचाराः॥१०॥ सूत्रार्थ:-कल्पोपपन्नसे परे जो देव हैं, वे अप्रवीचार हैं। . भाष्यम्-कल्पोपपन्नेभ्यः परे देवा अप्रवीचारा भवन्ति । अल्पसंक्लेशत्वात् स्वस्थाः शीतीभूताः । पञ्चविधप्रवीचारोद्भवादपि प्रीतिविशेषादपरिमितगुणप्रीतिप्रकर्षाः परमसुखतृप्ता एव भवन्ति ॥
अत्राह । उक्तं भवता देवाश्चतुनिकाया दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पा इत्युक्ते निकायाः के के चैषां विकल्पा इति । अत्रोच्यते । चत्वारो देवनिकायाः । तद्यथा । भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिका इति ॥ तत्र
विशेषव्याख्या-यहां पर्यन्त तो आरंभसे लेके कल्पोपपन्नपर्यन्त देवोंके प्रवीचारका वर्णन किया, अब इसके पश्चात् कल्पसे परे अर्थात् कल्पातीतकी व्यवस्था कहते हैं कि-कल्पोपपन्नोंसे परे जो देव हैं वे अप्रवीचार होते हैं, अर्थात् उनके मैथुन सेवन नहीं होता । क्योंकि इन देवोंके संक्लेश अथवा संक्लिष्टकर्म अल्प होते हैं, अतएव वे स्वस्थ, शान्त और सदा शीतलभूत रहते हैं। पांच प्रकारके प्रवीचारद्वारा अर्थात् काय, स्पर्श, रूप, शब्द तथा मनोजन्य मैथुन सेवनकेद्वारा उत्पन्न जो प्रीतिविशेष है, उससे भी अपरिमितगुण अर्थात् पूर्वोक्त पंचविध मैथुनोंसे जो आनन्द होता है, उससे अपरिमित-अनन्तगुण प्रीति वा आनन्दकी अधिकतायुक्त ये देवगण होते हैं, अतएव परमसुखतृप्त ही रहते हैं ॥ १० ॥ __ अब यहां कहते हैं कि, आपने देवोंके चार निकाय कहे और क्रमसे प्रथम निकाय दश भेद, द्वितीय आठ भेद, तृतीय पांच भेद और चतुर्थ बारह भेदसहित हैं, यह भी कहा, तब चारों निकाय कौन २ हैं ? तथा उनके दश, आठ, पांच तथा बारह विकल्प भी कौन २ हैं । इसका समाधान यहां कहते हैं । चार देव निकाय हैं । सो इस प्रकार कि, १ भवनवासी, २ व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क और ४ वैमानिक । इनमें--- भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि
द्वीपदिक्कुमाराः ॥११॥ सूत्रार्थ:--भवनवासियों के असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमारादि दश भेद हैं । भाष्यम् –प्रथमो देवनिकायो भवनवासिनः । इमानि चैषां विधानानि भवन्ति । तद्यथा असुरकुमारा नागकुमारा विद्युत्कुमाराः सुपर्णकुमारा अग्निकुमारा वातकुमाराः स्तनितकुमारा उदधिकुमारा द्वीपकुमारा दिक्कुमारा इति । कुमारवदेते कान्तदर्शनाः सुकुमारा मृदुमधुरललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवचोद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणा
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