SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-ऐशानादूर्ध्व शेषाः कल्पोपपन्ना देवा द्वयोर्द्वयोः कल्पयोः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा भवन्ति यथासङ्खयम् । तद्यथा । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्दैवान्मैथुनसुखप्रेप्सूनुत्पन्नास्थान्विदित्वा देव्य उपतिष्ठन्ते । ताः स्पृष्टदैव च ते प्रीतिमुपलभन्ते विनिवृत्तास्थाश्च भवन्ति । तथा ब्रह्मलोकलान्तकयोर्देवानेवंभूतोत्पन्नास्थान्विदित्वा देव्यो दिव्यानि स्वभावभावस्वराणि सर्वाङ्गमनोहराणि शृङ्गारोदाराभिजाताकारविलासान्युज्वलचारुवेषाभरणानि स्वानि रूपाणि दर्शयन्ति । तानि दृष्ट्वैव ते प्रीतिमुपलभन्ते निवृत्तास्थाश्च भवन्ति ॥ तथा महाशुक्रसहस्रा. रयोर्देवानुत्पन्नप्रवीचारास्थान्विदित्वा देव्यः श्रुतिविषयसुखानत्यन्तमनोहराञ् शृङ्गारोदाराभिजातविलासाभिलापच्छेदतलतालाभरणरवमिश्रान्हसितकथितगीतशब्दानुदीरयन्ति । ताञ्श्रुत्वैव ते प्रीतिमुपलभन्ते निवृत्तास्थाश्च भवन्ति ॥ आनतप्राणतारणाच्युतकल्पवासिनो देवाः प्रवीचारायोत्पन्नास्था देवीः संकल्पयन्ति संकल्पमात्रेणैव ते परां प्रीतिमुपलभन्ते विनिवृ. त्तास्थाश्च भवन्ति ॥ एभिश्च प्रवीचारैः परतः परतः प्रीतिप्रकर्षविशेषोऽनुपमगुणो भवति प्रवीचारिणामल्पसंक्लेशत्वात् । स्थितिप्रभावाभिरधिका इति वक्ष्यते ॥ विशेषव्याख्या-ऊपर कहे हुए ईशानस्वर्गसे ऊपर शेष जो कल्पोपपन्न देव हैं । वे दो २ कल्पोंके क्रमसे स्पर्श, रूप, शब्द तथा मनसे प्रवीचार अर्थात् मैथुन सेवन करनेवाले हैं । सो इस प्रकार कि, सनत्कुमार तथा माहेन्द्र कल्पोंके देवोंको मैथुन सुखके अभिलाषी तथा उत्पन्न आस्था ( आशा वा कामना) सहित जानकर देवी अर्थात् देवाङ्गना उनके निकट आकर उपस्थित होती हैं । उन देवियोंको स्पर्श करनेसे ही वे देव प्रीतिको प्राप्त होते हैं और कामनानिवृत भी हो जाते हैं। ऐसे ही ब्रह्मलोक तथा लोकान्तकके देवोंको देवाङ्गनायें दिव्य, स्वभावसे ही प्रकाशशील, सर्वांङ्गमनोहर, शृंगारके उत्तम आकार विलासोंसे पूर्ण, तथा उज्ज्वल और रमणीय वेष (वस्त्रादि) और भूषणादि युक्त अपने रूपोंको दिखाती हैं । वे देव उनके अति मनोहर रूपको देखते ही प्रीतिको प्राप्त होते हैं, तथा कामनासे भी निवृत हो जाते हैं । इसी प्रकार महाशुक्र तथा सहस्रार स्वर्गके देवोंको उत्पन्न मैथुनकी कामनासहित जानकर देवियां उनके निकट आकर उपस्थित होती हैं, और उनके सम्मुख श्रवण विषयको सुखदायक, अत्यन्त मनोहर शृंगार, उदार ( उत्कृष्ट ) अभिजात विलास अभिलाप छेद तलतालयुक्त, आभूषणोंके शब्द सहित, हसित कथित गीतके शब्दोंको उच्चारण करती हैं। उन्हीं शब्दोंके श्रवणमात्रसे वे प्रीतिको प्राप्त होते हैं और कामनासे भी रहित हो जाते हैं । और आनत, प्राणत तथा आरण, अच्युत कल्पोंके जो देव हैं, उन्हें जिस समय मैथुन सेवनकी कामना होती है, उसी समय वे देवियोंका संकल्प करते हैं, और केवल अपने मनके संकल्पमात्रसे ही परमप्रीतिको प्राप्त होते हैं, और मैथुनकी कामनासे भी निवृत हो जाते हैं । इन शरीर, स्पर्श, रूप, शब्द तथा मनकेद्वारा मैथुनके उपसेवनोंसे आगे २ के देवोंके प्रीतिका प्रकर्ष विशेष अनुपम गुण है । क्योंकि आगे २ के मैथुनसेवि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy