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- सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । द्वीपकास्वकर्मभूमिपु. कर्मभूमिषु च सुषमसुषमायां सुषमायां सुषमदुःषमायामित्यसङ्घयवर्षायुषो मनुष्या भवन्ति । अत्रैव वाह्येषु द्वीपेषु समुद्रेषु तिर्यग्योनिजा असङ्खयेयवर्षायुषो भवन्ति । औपपातिकाश्चासङ्खयेयवर्षायुषश्च निरुपक्रमाः । चरमदेहाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्चेति । एभ्य औपपातिकचरमदेहासङ्खयेयवर्षायुर्व्यः शेषा मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोप क्रमा निरुपक्रमाश्चापवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति । तत्र येऽपवायुषस्तेषां विषशस्त्रकण्टकाग्न्युदकाह्य शिताजीर्णाशनिप्रपातोद्वन्धनश्वापदवज्रनिर्घातादिभिः क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिभिश्च द्वन्द्वोपक्रमैरायुरपवर्त्यते । अपवर्तनं शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात्कर्मफलोपभोगः । उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम् ॥
विशेषव्याख्या-औपपातिक, अर्थात् उपपात संज्ञक जन्ममें उत्पन्न होनेवाले, चरमदेह अर्थात् अन्तिम शरीरवाले, उत्तमपुरुष और असंख्येय वर्ष आयुष्वाले, ये चारों अनपवर्त्य (अपवर्तन न करने योग्य) आयुष्वाले होते हैं, इनमें देव तथा नारक औपपातिक हैं, यह कह चुके हैं । और चरम देहवाले मनुष्य ही होते हैं; अन्य नहीं। जिस शरीरसे सिद्ध होते अर्थात् मोक्षरूपी सिद्धिको प्राप्त करते हैं वह चरम देह है । तीर्थकर चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री आदि उत्तम पुरुष हैं । तथा असंखेयवर्ष आयुष्वाले मनुष्य तथा तिर्यच होते हैं । देवकुरु उत्तरकुरुओंमें और अन्तरद्वीपवाली अकर्म भूमियोंमें, तथा सुषमसुषमा, सुषमा और सुषमदुःषमाकालमें कर्मभूमियोंमें भी असंख्येयवर्ष आयुषवाले मनुष्य होते हैं। और इसी काल तथा इन्हीं देशोंमें बाह्यसमुद्र तथा द्वीपोंमें तिर्यग्योनिज जीव भी असंख्येय वर्ष आयुवाले होते हैं । औपपातिक तथा असंख्येयवर्ष आयुष्वाले उपक्रम रहित होते हैं । और चरम देहवाले उपक्रम सहित तथा उपक्रम रहित भी होते हैं। और इन
औपपातिक, चरमदेह, और असंखेयवर्ष आयुष्वालोंसे शेष मनुष्य तथा तिर्यग्योनिज जो उपक्रमसहित तथा उपक्रमरहित हैं, वे अपवर्त्य आयुषवाले और अनपवर्त्य आयुष्वाले भी होते हैं । उनमें जो अपवर्त्य आयुष्वाले हैं, उनकी विष, शस्त्र, कंटक, अग्नि, जल, सर्प, अजीर्ण भोजन, वज्रपात, शूली, हिंसक जीव और वज्रादिके अभिघात आदिसे तथा द्वेन्दसे आरंभ होनेवाले क्षुत्, पिपासा, और शीतोष्णादिसे भी आयुष् अपवर्तित (न्यून) होती है । अपवर्तनका, अर्थ है शीघ्र अन्तर्मुहूर्तकालमें ही कर्मोंके फलोंका उपभोग । और उपक्रमका अर्थ है, अपवर्तनका निमित्त ॥ ५२ ॥
१ उत्तम पुरुषसे यहां तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव तथा वासुदेव आदिका ग्रहण है । कोई कहते हैं, कि सूत्रमें उत्तम पुरुषका ग्रहण नहीं है, तो तीर्थकरादिका ग्रहण कैसे होगा? इसपर कहते हैं, कि चरमदेह ग्रहणसे तीर्थकरादिका ग्रहण होगा । क्योंकि चरमशरीरी उत्तम पुरुष अवश्य होते हैं और उत्तम पुरुषोंको चरमदेह प्राप्य है । इस हेतुसे उत्तम पुरुष ग्रहण अनार्ष है । दोनों प्रकारके भाष्य हैं। अनिन्दित होनेसे प्रथम उत्तम पुरुष ग्रहण किया और तीर्थकरादि उसका विवरण किया. और पुनः उत्तर कालमें उत्तम पुरुषका ग्रहण किया, परन्तु निरुपक्रम सोपक्रम कथनसे यह सन्देह भाष्यसे होता है, अतएव उसी भाष्यकारके श्रावकप्रज्ञप्तिमें उत्तम पुरुष ग्रहण किया है, यहां भी यही समझना चाहिये । २ उपद्रव ।
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