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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १९५ उचित है । ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरे ही किए कर्मोके फलोंका अभ्यागमन है; उन्ही कर्मोंका आगमन हुआ है जिससे हमको यह अनेक प्रकारके क्लेश होते हैं, दूसरा तो केवल निमित्तमात्र है, इत्यादि विचारोंसे क्षमा करनी चाहिये । और अन्य हेतु यह भी है कि-अनायास अर्थात् आयास परिश्रम आदिके अभाव आदि क्षमाके गुणोंको स्मरण करके क्षमा करनी उचित है । इस प्रकार यह क्षमा धर्म प्रथम कहा गया है ॥ १॥ नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको मार्दवलक्षणम् । मृदुभावः मृदुकर्म च मार्दवं मदनिग्रहो मानविघातश्वेत्यर्थः । तत्र मानस्येमान्यष्टौ स्थानानि भवन्ति । तद्यथा । जातिः कुलं रूपमैश्वर्य विज्ञानं श्रुतं लाभो वीर्यमिति । एभिर्जात्यादिभिरष्टाभिर्मदस्थानैर्मत्तः परात्मनिन्दाप्रशंसाभिरतस्तीब्राहंकारोपहतमतिरिहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्मादेषां मदस्थानानां निग्रहो मार्दवं धर्म इति ॥ २ ॥ नम्रताका वर्तन तथा गर्वराहित्य होना, यह मार्दवका लक्षण है । मृदुभाव वा मृदु कर्म जो है वह मार्दव है । मदका निग्रह अर्थात् धन विद्या आदिसे मद (गर्व ) होता है उसका निग्रह और अभिमानका विघात यह मार्दव धर्म है। उसमें मान वा अमिमानके ये ८ आठ स्थान होते हैं। जैसे-जाति (ब्राह्मणत्वआदि जाति), कुल (उत्तम कुल ), रूप (सौन्दर्य), ऐश्वर्य (धनआदि विभूति ), विज्ञान (अनेक पदार्थविषयक आनुभविक ज्ञान ), श्रुत अर्थात् शास्त्रसम्पत्ति, लाभ, ऐहिक वा पारलौकिक पदार्थके लाभ तथा वीर्य इन जाति आदि आठों मदोंके स्थानोंसे मत्त होकर प्राणी अन्य जनोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा आदिमें तत्पर होकर तीव्र अहङ्कारसे नष्ट बुद्धि इसलोक तथा परलोकमें भी अशुभ फलदायक पाप कर्मोंका ही संग्रह करता है; और उपदेश देनेपर भी मदोन्मत्तताके कारणसे कल्याणमार्गको नहीं ग्रहण करता, इत्यादि हेतुओंसे जो जाति आदि मनके स्थान अभी पूर्वमें कहे हैं उनका निग्रह करना यह मार्दवनामा द्वितीय धर्म है ॥ २॥ भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम् । ऋजुभावः ऋजुकर्म वार्जवं भावदोषवर्जनमित्यर्थः । भावदोषयुक्तो झुपधिनिकृतिसंयुक्त इहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्मादार्जवं धर्म इति ॥ ३॥ भावकी विशुद्धि तथा वञ्चना, विप्रलम्भ (धोखा देना वा मिथ्या भाषण कपटआदि व्यवहारोंसे दूसरोंको ठगने) का अभाव अर्थात् अविसंवाद जो है वह आर्जवका लक्षण - १ मृदुका अर्थ कोमल है । उस मृदु शब्दसे भाव वा कर्म अर्थमें तद्धित अण् प्रत्यय होनेसे मार्दव बनता है । मृदोर्भावः कर्म वा मार्दवम् । अर्थात् मृदुका जो भाव या कर्म है वह मार्दव है । Jain Education International For Personal &Private Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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