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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वाचक शब्द हैं । सो क्षमा किस रीतिसे करनी चाहिये यह कहते हैं । प्रयुक्त क्रोधके. निमित्तका आत्मामें भाव वा अभाव चिन्तन करनेसे, अर्थात् दूसरोंमें प्रयुक्त जो क्रोधके निमित्त (कारण वा हेतु )उनका आत्मामें भाव चिन्तन करना कि ये जो क्रोधके निमित्त हैं उनकी आत्मामें अस्तिता है, अथवा उसके अभावके चिन्तनसे क्षमा करनी चाहिये। उसमें भावके चिन्तनसे तो यह होगा कि-मुझमें क्रोधके कारणीभूत दोष ही हैं, इसमें यह मिथ्या क्या कहता है; ऐसा विचार करके क्षमा करनी चाहिये। और क्रोधके निमित्तके अभावचिन्तनसे भी क्षमा करनी चाहिये कि-ये दोष मुझमें नहीं हैं जिनको कि-यह अज्ञानसे कहता है। अर्थात् इसका मुझमें दोषारोपण अज्ञानसे है, यथार्थमें नहीं है। ऐसा चिन्तन करके भी क्षमा करनी चाहिये । और इससे भिन्न यह भी है कि-क्रोधके दोषोंका चिन्तन करके भी क्षमा करनी चाहिये । क्योंकि-क्रोधयुक्त प्राणीके विद्वेष स्मृतिका नाश तथा व्रतलोप आदि दोष भी होते हैं ऐसा विचार करके क्षमा करनी चाहिये । और यह भी है। बालस्वभावचिन्तनसे भी क्षमा करनी चाहिये । और परोक्ष, प्रत्यक्ष, आक्रोश, ताडन, मारण, तथा धर्मभ्रंश इनमेंसे उत्तरोत्तरकी रक्षार्थ भी क्षमा करनी अवश्य कर्तव्य है । बाल इस पदसे मूढसे अभिप्राय है। हमारे परोक्ष (अनुपस्थिति )में आक्रोशन (निन्दा आदि )करता है, बालक ( मूढ ) है इसलिये क्षमा करनी चाहिये । क्योंकि-बालक ऐसा बका ही करते हैं । और यह भी सौभाग्यका विषय है कि हमारे परोक्षमें ही वह गालिसंप्रदान आदि करता है, न कि-प्रत्यक्ष (सम्मुख)। इस हेतुसे लाभ ही समझना चाहिये।
और यदि प्रत्यक्षमें गालिआदि संप्रदान बाल (मूढ )करे तो भी क्षमा ही करनी चाहिये। क्योंकि-बालक प्रत्यक्ष भी सबको कुवाच्य कहते हैं । और यह भी सौभाग्य है किप्रत्यक्ष कुवाच्य आक्रोशन आदि ही करता है, न कि-मुझे ताडना करता है (मारता) है। और बालक यदि ताडना करे तो भी उसपर क्षमा करनी उचित है। क्योंकि बाल (मूढ )जन ऐसे खभाववाले होते ही हैं, अर्थात् दूसरोंको ताडनाआदि करना यह उनका स्वभाव ही है, ऐसा मानकर क्षमा करनी चाहिये । और यह भी सौभाग्यका विषय है कि केवल ताडना ही करता है न कि-प्राणोंसे भी मुझे वियुक्त (अलग )करता है। क्योंकि-प्राणोंसे वियुक्त करना यह भी बालों ( मूढों ) में है। और प्राणोंसे भी वियुक्त करते हुए बालके ऊपर क्षमा ही करनी चाहिये । क्योंकि यह भी सौभाग्यका विषय है कि तुझे केवल प्राणोंसे ही पृथक् करता है (वध करता है ) न कि धर्मसे भ्रष्ट करता (धर्मसे च्युत वा पतित करता) है। क्योंकि-धर्मसे च्युत करना यह भी बालों (मूढजनों ) में है। अतः केवल प्राणमात्रसे ही वियुक्त (वधमात्र) करनेसे लाभ ही मानना उचित है, इत्यादि चिन्तन करके क्षमा ही करनी चाहिये । और यह भी हैअपनेसे किये हुए कर्मोके फलके अभ्यागम (आगमन) से भी क्षमा करनी
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