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________________ १९६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है । ऋजुभाव तथा ऋजुकर्म, अर्थात् सरल भाव वा सरल कर्म यह आर्जव है । तात्पर्य यह है कि भावोंके जो दोष हैं उनका वर्जन (निषेध) दुष्ट भावोंके त्यागपूर्वक सरल भावोंका जो ग्रहण है वही आर्जव (सरलता, सिधाई वा कपटराहित्य ) है । क्योंकि भावोंके दोषोंसे युक्त कपट, वञ्चना (धोखा देना) आदिसे संयुक्त पुरुष इस लोक तथा परलोकमें अशुद्ध फलदायक अकुशल (पापमय ) कर्मोंका ही संग्रह करता है; और उपदेश देनेपर भी कल्याणको नहीं प्राप्त होता है । इस हेतुसे भावदोषोंका त्यागरूप आर्जव यह तृतीय धर्म है ॥ ३ ॥ अलोभः शौचलक्षणम् । शुचिभावः शुचिकर्म वा शौचं भावविशुद्धिः निष्कल्मषता धर्मसाधनमात्रास्वप्यनभिष्वङ्ग इत्यर्थः । अशुचिर्हि भावकल्मषसंयुक्त इहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्माच्छौचं धर्म इति ॥ ४ ॥ अलोभ अर्थात् लोभका अभाव होना, यह शौचका लक्षण है । शुचिका भाव वा शुचि (पवित्र ) कर्म शौच है । भावविशुद्धि (भावोंकी शुद्धता) तथा निष्कल्मषता अर्थात् लोभादि मालिन्यकी रहितता, धर्मसाधनमात्र सामग्रियोंमें भी आसक्तिका अभाव यह शौच है । क्योंकि अशुचि (शौचरहित) जन भावकल्मषोंसे संयुक्त रहनेके कारण इस लोक तथा परलोकमें भी अशुद्ध (दुष्ट ) फलदायक अकुशल अर्थात् पापोंसे पूर्ण तथा दुःखप्रद कर्मोंका संग्रह करता है, और उपदेश देनेपर भी कल्याणमार्गको नहीं प्राप्त होता, इस हेतुसे अशौचके त्यागनेसे शौच यह चतुर्थ धर्म होता है ॥ ४ ॥ सत्यर्थे भवं वचः सत्यं सद्भयो वा हितं सत्यम् । तदननृतमपरुषमपिशुनमनसभ्यमचपलमनाविलमविरलमसंभ्रान्तं मधुरमभिजातमसंदिग्धं स्फुटमौदार्ययुक्तमग्राम्यपदार्थाभिव्याहरमसीभरमरागद्वेषयुक्तं सूत्रमार्गानुसारप्रवृत्तार्थमय॑मर्थिजनभावग्रहणसमर्थमात्मपरानुग्राहकं निरुपधं देशकालोपपन्नमनवद्यमईच्छासनप्रशस्तं यतं मितं याचनं प्रच्छनं प्रभव्याकरणमिति सत्यं धर्मः ॥ ५॥ सत्य अर्थके लिये उत्पन्न जो वचन है वह सत्य है, अथवा सज्जनोंके लिये हितकारक जो वचन है वह सत्य है । वह सत्य मिथ्यादोषसे रहित, परुषता (कठोरता ) रहित, अपिशुन अर्थात् सूचकता वा चुगुली आदि दोषवर्जित, असभ्यतारहित, चञ्चलताशून्य, अनाविल ( मालिन्यदोषशून्य वा अकलुषित), विरलतारहित, असंभ्रान्त (भ्रमरहित ), मधुर, अभिजात (उज्वल वा विशद ), असंदिग्ध अर्थात् सन्देहरहित, स्फुट (स्पष्ट ), औदार्य अर्थात् उदारतासंयुक्त वा उच्च विचारसहित, ग्रामीण पद पदार्थ दोषोंसे वर्जित, अश्लीलतारहित, रागद्वेषसे वर्जित, सूत्रमार्गके अनुसार प्रवृत्त अर्थसहित, बहुमूल्य १ ऐसे ही सरल अर्थवाचक ऋजु शब्दसे भाव वा कर्म अर्थमें अण् प्रत्यय होनेसे आर्जव बनता है। (ऋजोर्भावः कर्म वा आर्जवम् ) अर्थात् ऋजुका जो भाव या कर्म है वह आर्जव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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