SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १९७ वा पूजनीय, अर्थी जनोंको भाव ग्रहण करनेमें समर्थ ( योग्य ), अपने तथा अन्यके ऊपर अनुग्रह करनेवाला अर्थात् निज आत्मा और अन्य आत्माकी हानिसे वर्जित, छल कपटआदि दोषशून्य, देशकालके अनुकूल, अनिन्दनीय, अर्हत् भगवान् के शासन (शास्त्र ) - रीति से प्रशस्त अर्थात् अर्हत् - शास्त्र के सम्मत प्रशंसनीय, यत ( संयमसहित ), मित अर्थात् परिमित, याचन, प्रश्न और प्रश्नके विवरण अर्थात् प्रश्नके उत्तररूप होना चाहिये । इस रीति से मिथ्या परुषताआदि दोषोंसे शून्य होनेसे यह सत्य पञ्चम धर्म है ॥ ५ ॥ योगनिग्रहः संयमः । स सप्तदशविधः । तद्यथा । पृथिवीकायिकसंयमः अप्कायिकसंयमः तेजस्कायिकसंयमः वायुकायिकसंयमः वनस्पतिकायिकसंयमः द्वीन्द्रियसंयमः श्रीन्द्रियसंयमः चतुरिन्द्रियसंयमः पञ्चेन्द्रियसंयमः प्रेक्ष्यसंयमः उपेक्ष्यसंयमः अपहृत्यसंयमः प्रसृज्यसंयमः कायसंयमः वाक्संयमः मनः संयमः उपकरणसंयम इति संयमो धर्मः ॥६॥ योगोंका जो निग्रह है, अर्थात् काय, वाक् तथा मनोरूप जो तीन प्रकारके योग हैं उनका निग्रह अर्थात् अपने वशमें रखना, यह संयम धर्म है । वह संयम धर्म सत्रह (१७) प्रकारका है । जैसे— पृथिवीकायिकसंयम अर्थात् पृथिवीकायिकके विषयमें संयम, अप्रकायिकसंयम, तेजस्कायिकसंयम, वायुकायिकसंयम, वनस्पतिकायिकसंयम, द्वीन्द्रियसंयम अर्थात् दो इन्द्रियवाले जीवोंके विषयसंयम ( योगत्रयनिग्रह), त्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पञ्चेन्द्रियसंयमः प्रेक्ष्य अर्थात् प्रेक्षण करनेयोग्य पदार्थोंके विषयमें संयम, उपेक्ष्यसंयम ( उपेक्षा करनेयोग्य पदार्थोंसे संयम ), अहत्य संयम ( निन्दनीय पदार्थविषयक संयम ), प्रमृज्य अर्थात् शोधनीय पदार्थवि - षयक संयम, कायसंयम, वाक्यसंयम, मनःसंयम, तथा उपकरणसंयम । सर्वत्र उन २ पदार्थोंके विषयमें योगत्रयका निग्रह होनेसे संयम यह षष्ठ धर्म है ॥ ६ ॥ तपो द्विविधम् । तत्परस्ताद्वक्ष्यते । प्रकीर्णकं चेदमनेकविधम् । तद्यथा । यववज्रमध्ये चन्द्रप्रतिमे द्वे, कनकरत्नमुक्तावल्यस्तिस्रः सिंहविक्रीडिते द्वे, सप्तसप्तमिकाद्याः प्रतिमाश्चतस्रः, भद्रोत्तरमा चाम्लं वर्धमानं सर्वतोभद्रमित्येवमादि । तथा द्वादश भिक्षुप्रतिमा मासिकाद्या आसप्तमासिक्याः सप्त, सप्तरात्रिक्याः तिस्रः, अहोरात्रिकी, रात्रिकी चेति ॥ ७ ॥ तप दो प्रकारका है सो आगे कहेंगे ( अ. ९ सू. १९,२० ) । और प्रकीर्णक अर्थात् विस्तृत तप अनेक प्रकारका है । जैसे - यववज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा दो, कनकरत्नमुक्तावली तीन, सिंहविक्रीडित दो, सप्तमिकादि सात, भद्रोत्तर, आचाम्लं, वर्धमान, तथा सर्वतोभद्र, इत्यादि चार प्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा हैं । मासिक आदि सप्त मासिकी पर्यन्त सात प्रतिमा हैं । सप्तरात्रिकी प्रतिमा तीन हैं, जैसे- अहोरात्रिकी, रात्रिकी इत्यादि । इस प्रकार तप सप्तम धर्म है ॥ ७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy