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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरानपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः ॥ ८ ॥
बाह्य तथा आभ्यन्तर उपाधि, शरीर, तथा अन्नपान आदिके आश्रयीभूत भाव दोषोंका जो परित्याग है वह त्यागरूप अष्टम धर्म है ॥ ८॥ शरीरधर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिञ्चन्यम् ।। ९॥
शरीर तथा धर्मके भी उपकरण अर्थात् धर्मसाधन सामग्री आदि हैं; उनमें भी निर्ममत्व, अर्थात् ये मेरे हैं इस प्रकारकी ममताका जो अभाव है उसको आकिञ्चन्य नवम धर्म कहते हैं ॥ ९ ॥ । व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय च गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यमस्वातन्त्र्यं गुर्वधीनत्वं गुरुनिर्देशस्थायित्वमित्यर्थ च । पञ्चाचार्याः प्रोक्ताः प्रव्राजको दिगाचार्यः श्रुतोद्देष्टा श्रुतसमुद्देष्टा आम्नायार्थवाचक इति । तस्य ब्रह्मचर्यस्येमे विशेषगुणा भवन्ति । अब्रह्मविरतिव्रतभावना यथोक्ता इष्टस्पर्शरसरूपगन्धशब्दविभूषानभिनन्दित्वं चेति ॥ १०॥
व्रतके परिपालनके अर्थ, ज्ञानकी विशेषवृद्धिके लिये, और क्रोधआदि कषायोंके परिपाकार्थ जो गुरुकुलमें निवास है, उसको ब्रह्मचर्य कहते हैं । ब्रह्मचर्यका अर्थ है अस्वतन्त्रता,. गुरुकी आधीनता, अर्थात् स्वतंत्र वा स्वच्छन्दचारी न होकर गुरुके आधीन रहना तथा गुरुके निर्देशमें स्थायित्व, अर्थात् गुरुकी आज्ञामें रहकर विद्यादि गुणोंका उपार्जन करना । आचार्य पांच प्रकारके कहे गये हैं । जैसे--परिव्राजक ( यति ), दिगाचार्य, श्रुत (शास्त्र) का उद्देष्टा (पढ़ानेवाला) और आम्नायसिद्ध अर्थोंका वाचक । उस ब्रह्मचर्यके ये विशेष गुण हैं । जैसे—अब्रह्मसे निवृत्ति अर्थात् मैथुनमे निवृत्ति और व्रतोंकी भावना। उन भावनाओंका वर्णन पूर्वप्रकरणमें कह चुके हैं। तथा मनोहर अभिलषित स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द, तथा आभूषणआदिसे प्रसन्न न होना । इन हेतुओंसे ब्रह्मचर्यकी दशम धर्ममें गणना की, अर्थात् ब्रह्मचर्य दशम धर्म है ॥१०॥
अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मखाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥
सूत्रार्थ-अनित्यानुप्रेक्षा आदि बारह (१२) अनुप्रेक्षा हे ॥ ७ ॥ भाष्यम्-एता द्वादशानुप्रेक्षाः । तत्र बाह्याभ्यन्तराणि शरीरशय्यासनवस्त्रादीनि द्रव्याणि सर्वसंयोगाश्चानित्या इत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः तेष्वभिष्वजो न भवति मा भून्मे तद्वियोगजं दुःखमित्यनित्यानुप्रेक्षा ॥१॥
विशेषव्याख्या-अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, संसारानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, अन्यत्वानुप्रेक्षा, अशुचित्वानुप्रेक्षा, आस्रवानुप्रेक्षा, संवरानुप्रेक्षा, निर्जरानुप्रेक्षा, लोकानुप्रेक्षा, बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा, तथा धर्मानुप्रेक्षा, ये द्वादश अर्थात् बारह (१२) प्रकारकी अनुप्रेक्षा हैं । उनमें बाह्य तथा आभ्यन्तरके यावत् पदार्थ मात्र हैं, उन सबकी अनित्य
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