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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ताका अनुचिन्तन अर्थात् विचार करना । जैसे-शरीर, इन्द्रियादि, शय्या, आसन वस्त्र तथा गृहआदि जितने द्रव्य हैं, वे सब संयोगसे उत्पन्न हुए हैं और अनित्य हैं; ऐसा सदा चिन्तन करे । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले प्राणीकी उन शरीरआदि पदार्थोंमें आसक्ति नहीं होती। क्योंकि वे अनित्य हैं तब उनके वियोगसे जनित' दुःख हमको न हो; इस प्रकार पदार्थोंके वियोगसे उत्पन्न दुःखोंके नाशार्थ जो सबके अनित्यत्वका अनुचिन्तन है वह अनित्यानुप्रेक्षा नाम प्रथम अनुप्रेक्षा है ॥ १ ॥
यथा निराश्रये जनविरहिते वनस्थलीपृष्ठे बलवता क्षुत्परिगतेनामिषैषिणा सिंहेनाभ्याहतस्य मृगशिशोः शरणं न विद्यते एवं जन्मजरामरणव्याधिप्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगेप्सितालाभमदारिद्र्यदौर्भाग्यदौर्मनस्यमरणादिसमुत्थेन दुःखेनाभ्याहतस्य जन्तोः संसारे शरणं न विद्यत इति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतो नित्यमशरणोऽस्मीति नित्योद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेष्वनभिष्वङ्गो भवति । अर्हच्छासनोक्त एव विधौ घटते तद्धि परं शरणमित्य. शरणानुप्रेक्षा ॥२॥
जैसे निराश्रय ( किसी प्रकारके आश्रयसे रहित ), जनशून्य महा अरण्यानी ( बड़े भारी जंगल) के मध्यमें बलवान् , क्षुधाग्रस्त तथा मांसके अभिलाषी सिंहसे अभ्याहत (आक्रान्त ) मृग (हरिणआदि पशु) के बच्चेको कोई शरण ( रक्षाका स्थान ) नहीं है; इसी प्रकार जन्म, वृद्धाऽवस्था, मरण, अनेक प्रकारके शारीरिक तथा मानसिक रोग, प्रिय प्राणी वा अन्य प्रिय वस्तुका वियोग, अप्रिय वा अनिष्ट वस्तुका संयोग, अभिलषित पदार्थका अलाभ (चाही हुई वस्तुका न मिलना), दारिद्य (दीनता, गरीबी), दौर्भाग्य, दौर्मनस्य (वैर विरोध आदि ) तथा मरणआदिसे लेके अनेक अनिष्ट हेतु
ओंसे उत्पन्न दुःखसे आक्रान्त अर्थात् अनेक दुःखोंसे ग्रस्त जीवको कोई भी शरण (त्राण वा रक्षणका स्थान ) इस संसारमें नहीं है ऐसा अनुचिन्तन सदा करे । इस प्रकारसे नित्य चिन्तन करनेवाले प्राणीको कि-मैं सर्वथा शरणरहित हूं, मुझे जन्म जरा मरणआदि रोगजनित दुःखोंसे कोई भी इस संसारमें नहीं बचा सकता । उस नित्य उद्विग्न चित्तवाले प्राणीको सांसारिक भावमें अर्थात् संसारके पदार्थों में अरुचि वा अप्रीति होती है । तथा इस प्रकारके विचार करनेवाले जीवके चित्तमें यह भी भासता है कि-अर्हत् भगवान्प्रणीत शासन (शास्त्र) में जो कुछ कथित है वह सब इस अनित्यताआदि विधिमें घटित होता है, और उसमें ही प्रोक्त जो नित्य आत्मा है अथवा शुद्ध निश्चयसे आत्मारूप धर्म है, अन्य सब अशरण हैं, यह द्वितीय अशरणानुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ २॥ ___ अनादौ संसारे नरकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभवग्रहणेषु चक्रवत्परिवर्तमानस्य जन्तोः सर्व एव जन्तवः स्वजनाः परजना वा । न हि स्वजनपरजनयोर्व्यवस्था विद्यते । माता हि भूत्वा
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