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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-मिथ्यादर्शनं अविरतिः प्रमादः कषाया योगा इत्येते पञ्च बन्धहेतवो भवन्ति। तत्र सम्यग्दर्शनाद्विपरीतं मिथ्यादर्शनम् । तद् द्विविधमभिगृहीतमनभिगृहीतं च । तत्राभ्युपेत्यासम्यग्दर्शनपरिग्रहोऽभिगृहीतमज्ञानिकादीनां त्रयाणां त्रिषष्टानां कुवादिशतानाम् । शेषमनभिगृहीतम् ॥ यथोक्ताया विरतेर्विपरीताविरतिः ॥ प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरो योगदुष्प्रणिधानं चैष प्रमादः ॥ कषाया मोहनीये वक्ष्यन्ते योगस्त्रिविधः पूर्वोक्तः ॥ एषां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां पूर्वस्मिन्पूर्वस्मिन्सति नियतमुत्तरेषां भावः । उत्तरोत्तरभावे तु पूर्वेषामनियम इति ॥
विशेषव्याख्या-मिथ्यादर्शन आदि बन्धके हेतु हैं, उनमें सम्यग्दर्शनसे जो विपरीत अर्थात् विरुद्ध है वह मिथ्यादर्शन है । वह मिथ्यादर्शन दो प्रकारका है-एक अभिगृहीत
और दूसरा अनभिगृहीत । उनमें अज्ञानिकादि तीन तथा तीनसौ साठ असम्यग्दर्शनपूर्वक स्वीकार (जो दूसरेके उपदेश आदिसे स्वीकृत) होते हैं वह अभिगृहीत और शेष (अनादिकालका) अनभिगृहीत है । हिंसादिसे जो पूर्वविरति कही है उससे विपरीत अविरति है। तथा स्मृति (स्मरण)की अनवस्थिति, अर्थात् स्मृतिका नाश वा अभाव, कुशल कृत्योंमें अनादर तथा योगोंका दुष्प्रणिधान, ये सब प्रमाद हैं । कषाय मोहनीय कर्मोंमें कहेंगे (अ. ८ सू. १०), और योग, काय, वाग् तथा मनोरूप तीन प्रकारका पूर्वप्रकरणमें कह चुके हैं । ये जो मिथ्यादर्शन आदि पांच प्रकारके बन्धके हेतु कहे हैं इनमें पूर्व २के होनेपर परकी स्थिति अवश्य होती है, जैसे-मिथ्यादर्शनके होनेपर अविरतिकी सत्ता अवश्य होती है, अविरतिके होनेपर प्रमादकी सत्ता अवश्य होती है। ऐसा ही आगे भी जानो। उत्तर उत्तर (आगे२)के होनेपर पूर्वरके बन्धके हेतुओंकी स्थितिका नियम नहीं है किअवश्य हो । जैसे अविरतिकी सत्तामें यह नियम नहीं है कि-मिथ्यादर्शन अवश्य हो, अर्थात् अविरतिकी सत्तामें मिथ्यादर्शन हो भी सकता है और नहीं भी ॥१॥
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते ॥२॥ सूत्रार्थ-कषायसहित होनेसे जीव कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है ॥ २ ॥ भाष्यम्-सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलान् आदत्ते । कर्मयोग्यानिति अष्टविधे पुद्गलग्रहणकर्मशरीरग्रहणयोग्यानित्यर्थः । नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषादिति वक्ष्यते ॥
विशेषव्याख्या-कषायसहित होनेके कारण जीव कर्मयोग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है । इसका यह अभिप्राय है कि-अष्टविध पुद्गलग्रहणकर्म शरीर है उसके ग्रहणयोग्य अर्थात् जिसमें अष्टविध कर्मों के शरीरका ग्रहण है उन कर्मशरीर निर्माणयोग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। क्यों कि नामप्रत्यय कहिये कारण जिसको सबमें योगविशेषसे सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाहमें स्थित सम्पूर्ण आत्माके प्रदेशोंमें अनन्तानन्त प्रदेश है; ऐसा कहेंगे । (अ. ८ सू. २५) ॥२॥
स बन्धः ॥३॥ ... भाष्यम्स एष कमशरीरपुद्गलग्रहणकृतो बन्धो भवति ।
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