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सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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शेषो भवति । तद्विशेषाञ्च फलविशेषः ॥ तत्र विधिविशेषो नाम देशकालसं पच्छ्रद्धासत्कारक्रमाः कल्पनीयत्वमित्येवमादिः ॥ द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सारजातिगुणोत्कर्षयोगः ॥ दातृविशेषः प्रतिग्रहीत नसूया, त्यागेऽविषादः अपरिभाविता, दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः, कुशलाभिसंधिता, दृष्टफलानपेक्षिता, निरुपधत्वमनिदानत्वमिति ॥ पात्रविशेषः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपः संपन्नता इति ॥
इति तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसङ्ग्रहे सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥
विशेषव्याख्या—विधिके विशेषसे, द्रव्य अर्थात् दातव्य पदार्थके विशेषसे, दाता ( देनेवाले ) के विशेषसे, और पात्र अर्थात् जिसको दान दिया जाता है उसके विशेष (वैलक्षण्य) होनेसे दान धर्ममें भी विशेष (वैलक्षण्य व भेद ) होता है । उन विशेषोंमेंसे देश, काल, संपत् अर्थात् उत्तम देश, काल, सम्पत्ति, श्रद्धा, तथा सत्कारके क्रम इन सब विशेष रूपोंसे कल्पना करना यह विधिविशेष है । और द्रव्यविशेष क्या है कि अन्न आदि जो देय पदार्थ हैं उनमें सारजातीय ( उत्तमजातीय ) गुणके उत्कर्षका सम्बन्ध करना । अर्थात् उत्तम जाति तथा उत्तम गुणसंयुक्त वस्तु देना; यह द्रव्यविशेष है । दा ताकी विशेषता यह है कि दाताकी ग्रहणकर्ता पुरुषमें असूया (गुणों में दोषदृष्टि वा स्पर्धा) न हो । तथा त्याग (दान देने) में विषाद (शोक ) न हो अनादर न हो, अर्थात् आदरपूर्वक दान दे देनेकी इच्छा करते हुए, तथा दे चुकनेपर भी प्रीतियोग हो; दान देनेमें कुशल ( कल्याणमय ) अभिप्राय हो; किसी दृष्ट फलकी आकांक्षा न हो, उपधा ( उपाधि ) विशेषसे वर्जित हो; तथा निदानरहित हो, यह सब दातृ ( दाता ) के विशेष हैं । और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपसे सम्पन्न होना; यह पात्र ( दानके योग्य पुरुष ) की विशेषता है । इस प्रकार विधि आदिकी विशेषतासे दानमें विशेषता होती है ॥ ३४ ॥
इत्याचार्योपाधिधारि-ठाकुरप्रसादद्विवेदिप्रणीतभाषाटीकासमलङ्कृते
तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसंग्रहे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
अष्टमोऽध्यायः ।
उक्त आस्रवः बन्धं वक्ष्यामः । तत्प्रसिद्ध्यर्थमिदमुच्यते ।
आस्रवका निरूपण कर चुके । अब इसके अनन्तर बन्धका व्याख्यान करेंगे । उस बन्धकी सिद्धिके अर्थ यह अग्रिम सूत्र कहते हैं—
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥ १ ॥
सूत्रार्थ - मिथ्यादर्शन १ अविरति २ प्रमाद ३ कषाय ४ और योग ५ ये पांचों बन्धके हेतु हैं ॥ १ ॥
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