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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सूत्रार्थ-वि०व्याख्या-वही यह कर्म शरीरार्थ जो पुद्गलका ग्रहण तत्कृत बन्ध होता है । तात्पर्य यह कि-कर्मोंके शरीरार्थ जो जीव पुद्गलोंको ग्रहण करता है वही बन्ध है ॥ ३॥
स पुनश्चतुर्विधः । वह बन्ध वक्ष्यमाण भेदोंसे चार प्रकारका है. जैसे
प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः॥४॥ सूत्रार्थ-प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश यह चार उस बन्धके प्रकार हैं। भाष्यम्-प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धः अनुभावबन्धः प्रदेशबन्धः इति । तत्रविशेषव्याख्या–प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध तथा प्रदेशबन्ध, ये चार बन्ध हैं । जैसे
आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः ॥५ भाष्यम्-आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्प्रकृतिबन्धमाह । सोऽष्टविधः । तद्यथा । ज्ञानावरणं दर्शनावरणं वेदनीयं मोहनीयं आयुष्कं नाम गोत्रं अन्तरायमिति । किं चान्यत्
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-इस पूर्वोक्त चतुर्थ सूत्रके क्रमके प्रमाणसे आद्य अर्थात् प्रथम जो प्रकृति-बन्ध है उसको कहते हैं। उसके आठ भेद हैं। जैसेज्ञानावरण १, दर्शनावरण २, वेदनीय ३, मोहनीय ४, आयुष्क ५, नाम ६, गोत्र ७, और अन्तराय ८, ये आठ प्रकृतिबन्ध हैं । और यह भी विशेष है ॥ ५ ॥
पञ्चनवद्यष्टाविंशतिचतुईिचत्वारिंशदूविपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥६॥
भाष्यम्-स एष प्रकृतिबन्धोऽष्टविधोऽपि पुनरेकशः पञ्चभेदः नवभेदः द्विभेदः अष्टाविंशतिभेदः चतुर्भेदः द्विचत्वारिंशद्भेदः द्विभेदः पञ्चभेद इति यथाक्रमं प्रत्येतव्यम् । इत उत्तरं यद्वक्ष्यामः । तद्यथा--
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-जो यह प्रकृतिबन्ध आठ प्रकारका वर्णन किया गया है उन आठों भेदोंमें भी प्रत्येकके ये भेद हैं । जैसे—ज्ञानावरणके पांच (५) भेद, दर्शनावरणके नौ (९) भेद, वेदनीयके दो (२)भेद, मोहनीयके अष्टाविंशति अर्थात् अट्ठाईस (२८)भेद, आयुष्कके चार (४)भेद, नामके बयालीस (४२)भेद, गोत्रके दो (२)भेद, और अन्तरायके पांच (५)भेद हैं, इस प्रकार यथाक्रमसे जानना चाहिये ॥ ६ ॥ अब इसके पश्चात् जिन प्रकृतिभेदोंको आगे कहेंगे उनको ऐसे जानना. जैसे
मत्यादीनाम् ॥७॥ भाष्यम्-ज्ञानावरणं पञ्चविधं भवति । मत्यादीनां ज्ञानानामावरणानि पञ्च विकल्पांश्चैकश इति ॥
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-ज्ञानावरण जो प्रकृतिबन्धका प्रथम भेद है वह पांच
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