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________________ १७९ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उत्पन्न होते हैं । वालुकाराजिसदृश, जैसे बालूमें काष्ठ, लोहादिकी शलाका वा कंकरआदि हेतुओं से किसी भी कारणसे राजि (रेखा ) उत्पन्न होगई हो तो वह पवन आदिके झकोरोंसे वा अन्य हेतुओंसे एक मासके पूर्व ही नष्ट होजाती है। ऐसे ही पूर्वकथित इष्टवियोग आदि किसी हेतुसे यदि किसीके क्रोध उत्पन्न होगया तो वह क्रोध रात्रि, दिन पक्ष, मास, चतुर्मास वा अधिकसे अधिक एक वर्ष स्थित रहे तो वह क्रोध वालुकारेखाके समान है । इस प्रकारके क्रोधके उत्पन्न होनेके अनन्तर मरणको प्राप्त प्राणी मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं । उदकराजिके सदृश, जैसे जलमें दण्ड, शलाका तथा अङ्गुली आदि हेतुओं से किसी एक हेतुके द्वारा यदि रेखा उत्पन्न हो तो वह उस (जल)के द्रवीभूत होनेसे उत्पत्तिके अनन्तर ही मिट जाती है । इसी रीतिसे पूर्वनिमित्तोंसे जिस अप्रमत्त विद्वान्को क्रोध उत्पन्न हुआ और वह विचार तथा क्षमा करनेसे उत्पत्तिके अनन्तर ही नाशको भी प्राप्त होजाता है तो वह क्रोध उदकराजि (जलरेखा ) के समान है। इस प्रकारके क्रोध होनेके अनन्तर जो मृत्युको प्राप्त हुए वे देवताओंमें उत्पन्न होते हैं। और जिनको इन पूर्वकथित चारों प्रकारके क्रोधोंमें कोई भी क्रोध नहीं उत्पन्न होता वे तो निर्वाण ( मोक्ष ) को प्राप्त होते हैं। मानः स्तम्भो गर्व उत्सेकोऽहंकारो दर्पो मदः स्मय इत्यनन्तरम् । तस्यास्य मानस्य तीब्रादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा। शैलस्तम्भसदृशः अस्थिस्तम्भसदृशः दारुस्तम्भसदृशः लतास्तम्भसदृश इति । एषामुपसंहारो निगमनं च क्रोधनिदर्शनैर्व्याख्यातम् ॥ . . मान, स्तम्भ, गर्व, उत्सेक, अहङ्कार, दर्प, मद, तथा स्मय, ये सब शब्द भी एकार्थवाचक हैं । इन अनेक पर्यायोंसे वाच्य मानके भी तीव्र, मध्यम, तथा मन्दभावोंके आश्रित चार दृष्टान्त होते हैं । जैसे—शैलस्तम्भसदृश (पाषाण वा पर्वतोंके खम्भेके समान ) अस्थिस्तम्भसदृश (हाड़के खम्भेके तुल्य ) दारुस्तम्भसदृश (काष्ठके खम्भेके तुल्य ) और लतास्तम्भसदृश (बेलोंके खंभेके तुल्य ) इन चार प्रकारके मानोंके उपसंहार (संग्रह तथा समाप्ति) और निगमन (दृष्टान्तद्वारा उनकी सिद्धी) क्रोधोंके ही दृष्टान्तोंसे व्याख्यात समझलेनी उचित है। माया प्रणिधिरुपधिनिकृतिरावरणं वञ्चना दम्भः कूटमतिसन्धानमनार्जवमित्यनर्थान्तरम् । तस्या मायायास्तीवादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा । वंशकुणसदृशी मेषविषाणसदृशी गोमूत्रिकासदृशी निर्लेखनसदृशीति । अत्राप्युपसंहारनिगमने क्रोधनिदशनैर्व्याख्याते ॥ ऐसे ही माया, प्रणिधि, उपधि, निकृति, आवरण, वञ्चना, दम्भ, कूट, अतिसन्धान, तथा अनार्जव; ये सब शब्द भी एक ही अर्थके बोधक हैं। इस प्रकार अनेक पर्यायोंसे वाच्य इस मायाके भी तीव्र आदि भावोंके आश्रित दृष्टान्त होते हैं । जैसे-वंशकुण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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