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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विशेषव्याख्या-पूर्वमें जो चार निकाय देवोंके कहे हैं, वे यथासंख्य नियमसे इस प्रकार विकल्प अर्थात् भेदयुक्त हैं । यथा; प्रथम भवनवासीदेवोंके दश भेद हैं; वे दशभेद असुरादिक आगे कहे जावेंगे। द्वितीय व्यन्तरदेवोंके किन्नरादि आठ भेद हैं। तृतीय ज्योतिष्कदेवोंके सूर्यादि पांच भेद हैं । और चतुर्थ वैमानिकदेवोंके सौधर्मादि बारह भेद हैं । इस प्रकार कल्पोपपन्न अर्थात् स्वर्गवासी देवों पर्यन्त ही भेद हैं । इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्ण
काभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकशः ॥४॥ सूत्रार्थ:-पूर्वोक्त निकायोंमें प्रत्येकके इन्द्र सामानिकादि दश २ भेद हैं । __ भाष्यम्-एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति । तद्यथा । इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः पारिषद्याः आत्मरक्षाः लोकपालाः अनीकानि अनीकाधिपतयः प्रकीर्णकाः आभियोग्याः किल्बिषिकाश्चेति । तत्रेन्द्राः भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कविमानाधिपतयः । इन्द्रसमानाः सामानिका अमात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत् केवलमिन्द्रत्वहीनाः । त्रायस्त्रिंशा मत्रिपुरोहितस्थानीयाः । पारिषद्या वयस्यस्थानीयाः । आत्मरक्षाः शिरोरक्षस्थानीयाः । लोकपाला आरक्षिकार्थचरस्थानीयाः । अनीकाधिपतयो दण्डनायकस्थानीयाः । अनीकान्यनीकस्थानीयान्येव । प्रकीर्णकाः पौरजनपदस्थानीयाः । आभियोग्या दासस्थानीयाः । किल्बिषिका अन्तस्थस्थानीया इति ॥
विशेषव्याख्या-उन देव निकायोंमें एक २ में दश २ भेद सहित देव होते हैं । यथा;-इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीकं वा अनीकाधिपति, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्बिषिक । ये इन दश भेदोंमें जो इन्द्र हैं, वे भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और विमान प्रत्येकके अधिपति हैं, अर्थात् प्रत्येक समुदायके अधि- . पति वा स्वामीको इन्द्र कहते हैं । सामानिक इन्द्रके समान होते हैं, अर्थात् जो अमात्य पिता, गुरु, उपाध्यायोंके सदृश महत्व वा महिमायुक्त होते हैं, केवल इन्द्रत्व उनमें नहीं होता, वे सामानिक हैं । मंत्री पुरोहितादिकों के स्थानापन्न त्रायस्त्रिंश हैं । वयस्य अर्थात् मित्रोंके स्थानापन्न पारिषद्य हैं । शिरकी रक्षा करनेवालोंके स्थानापन्न आत्मरक्ष हैं । जैसे राजाओंके यहां आरक्षक अर्थचर कोतवालादि हैं, वैसे ही लोकपाल हैं।
१ जो निज विषयमें संधि तथा रक्षामें नियत हैं, चौरादिको जो पकड़ते हैं, जैसे राजाओंके यहां कोतवालादिक होते हैं, उन्हींके स्थानापन्न लोकपाल हैं।
२ सूत्रमें केवल 'अनीक' ही का ग्रहण किया है, और भाष्यमें 'अनीकानि' लिखके 'अनीकाधिप. तयः' (अनीकके अधिपत) ऐसा भी लिखा है, परन्तु यहां 'अनीक' तथा 'अनीकाधिपति' इन दोनोंसे एक ही तात्पर्य है । इसी विचारसे भाष्यकारने 'अनीकानि' इसका विवरण (टीका) 'अनीकाधिपतयः' यह किया है, न कि 'अनीक' और 'अनीकाधिपत' दो भेद कहे हैं । और ऐसा न माननेसे दश भेद जो कहे हैं, उनका विरोध होगा, क्योंकि अनीकाधिपतिको भिन्न माननेसे ११ भेद होते हैं।
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