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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ चतुर्थोध्यायः। अत्राह । उक्तं भवता भवप्रत्ययोऽवधि रकदेवानामिति । तथौदयिकेषु भावेषु देवगतिरिति । केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य । सरागसंयमादयो देवस्य । नारकसम्मृर्छिनो नपुंसकानि । न देवाः । तत्र के देवाः । कतिविधा वेति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहते हैं कि "भवप्रत्यय अर्थात् भव वा जन्मनिमित्तक अवधिज्ञान देव तथा नारक जीवोंको होता है" (अ० १ सू० २२)। "औदयिक भावोंमें देवगति है अर्थात् इक्कीस प्रकारके औदयिक भावोंमें देवगति भी एक है" (अ०२ सू० ६ )। "केवली भगवान् , शास्त्र, चार प्रकारके संघ, धर्म और भवनवासी आदि देवोंका अवर्णवाद दर्शनमोहके आस्रवका हेतु है" (अ० ६ सू० १४)। “सराग संयमादि देवायुके कारण हैं" (अ० ६ सू० २०)। "नारकजीव तथा सम्मूर्च्छन जन्मवाले नपुंसक होते हैं । देव नहीं होते" (अ० २ सू० ५०-५१ ) । इत्यादि स्थलोंमें आपने देव शब्दका प्रयोग किया । अब प्रश्न यह है कि, देव कौन हैं ? और उनके भेद कितने हैं ? उत्तरमें यहां सूत्र कहते हैं: देवाश्चतुर्निकायाः ॥१॥ सूत्रार्थः-देव चार निकायोंसे संयुक्त हैं । भाष्यम्-देवाश्चतुर्निकाया भवन्ति । तान्परस्ताद्वक्ष्यामः ।। विशेषव्याख्या--देवोंके चार निकाय हैं, उन चारोंको हम आगे कहेंगे । यहां पर निकाय शब्दका अर्थ समानधर्मवाले प्राणियोंका समूह वा संघ है। तृतीयः पीतलेश्यः ॥२॥ . सूत्रार्थः-तृतीय निकाय पीतलेश्यावाला है। भाष्यम्-तेषां चतुर्णा देवनिकायानां तृतीयो देवनिकायः पीतलेश्य एव भवति । कश्वासौ । ज्योतिष्क इति ॥ विशेषव्याख्या-देवोंके जो चार निकाय अर्थात् समुदाय हैं, उनमेंसे जो तीसरा समुदाय है, उसके पीतलेश्या ही है । वह तीसरा निकाय ज्योतिष्कदेवोंका है, अर्थात् तीसरे निकायवाले जो ज्योतिष्कदेव हैं, वे पीतलेश्यावाले होते हैं । __ दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३ ॥ सूत्रार्थः-वे देवनिकाय कल्पोपपन्नपर्यन्त क्रमसे दश, आठ, पांच और बारह भेद युक्त हैं। __ भाष्यम्-ते च देवनिकाया यथासङ्खयमेवं विकल्पा भवन्ति । तद्यथा। दशविकल्पा भवनवासिनोऽसुरादयो वक्ष्यन्ते । अष्टविकल्पा व्यन्तराः किन्नरादयः । पञ्चविकल्पा ज्योतिष्काः सूर्यादयः । द्वादशविकल्पा वैमानिकाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः सौधर्मादिष्विति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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