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________________ २४१ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। उत्पत्ति, स्थिति, अन्यता ( रूपान्तर परिणाम ) रूप अनुग्रह तथा प्रलय ( नाश ) के तत्त्वको ( यथार्थ स्वरूपको) जाननेवाला, अतएव विरक्त, तृष्णारहित, पञ्चसमितियुक्त ( ईर्ष्या आदि समितिसहित ) तथा दशलक्षण धर्मो अर्थात् उत्तम क्षमा मार्दव आदि दशलक्षण धर्मोंके अनुष्ठान और उनके फलके दर्शनसे, निर्वाण ( मोक्ष ) की प्राप्तिमें वर्तनोंसे पूर्ण रूपसे वृद्धिको प्राप्त श्रद्धा तथा संवेगसहित, भावनाओंसे ( मैत्री करुणा आदि भावनाओंसे ) भावित आत्मा अर्थात् पूजित आत्मा सहित, द्वादश अनुप्रेक्षा ओंसे स्थिर आत्मा संयुक्त, इसीसे सर्वथा सङ्गरहित, तथा संवृत ( संवरयुक्त) होनेसे तथा आस्रवरहित होनेसे, विरक्त होनेसे, और तृष्णासे वर्जित होनेसे नूतन ( नये ) कोंके सञ्चयसे रहित, तथा परीषहोंके जयसे, बाह्य तथा आभ्यन्तर द्वादश प्रकारके तपके अनुष्ठानसे तथा अनुभावोंसे भी सम्यग्दृष्टि, तथा विरत आदिसे लेकर जिनपर्यन्त सिद्धोंके परिणाम, अध्यवसाय और विशुद्धि रूप स्थानान्तरोंके असङ्ख्येय गुण उत्कर्षताकी प्राप्तिसे पूर्वभवके वा पूर्वकालके कर्मोंकी निर्जरा ( एकदेशकर्मनाश ) करते हुए, तथा सामायिकसे आदि देके सूक्ष्मसम्परायपर्यन्त संयमविशुद्धिके स्थानान्तरोंके उत्तर उत्तर (आगे२) उपलम्भ ( प्राप्ति होने से पुलाकसे आदि लेके निर्ग्रन्थपर्यन्त सिद्धोंके संयमोंके पालनसे विशुद्धियोंके स्थानविशेषोंकी उत्तर २ प्राप्ति वा बोधसे युक्त, आर्त तथा रौद्र ध्यानोंसे सर्वथा रहित, धर्मध्यानके विजयसे प्राप्त समाधिबल, अर्थात् धर्मध्यानकी दृढतासे समाधिबल जिसको प्राप्त है ऐसा, तथा पृथक्त्व वितर्क और एकत्व वितर्क इन दो प्रकारके शुक्ल ध्यानोंमेंसे किसी एक ध्यानमें वर्तमान महात्माजन नाना प्रकारकी ऋद्धि विशेषोंको अर्थात् अनेक प्रकारकी सिद्धियोंको प्राप्त करता है । वे ऋद्धियां (सिद्धिविशेष ) ये हैं, जैसे:___ आमशौषधित्वं विप्रुडौषधित्वं सौषधित्वं शापानुग्रहसामर्थ्यजननीमभिव्याहारसिद्धिमीशित्वं वशित्वमवधिज्ञानं शारीरविकरणाङ्गप्राप्तितामणिमानं लघिमानं महिमानमणुत्वम् । अणिमा बिसच्छिद्रमपि प्रविश्यासीतां । लघुत्वं नाम लघिमा वायोरपि लघुतरः स्यात् । महत्त्वं महिमा मेरोरपि महत्तरं शरीरं विकुर्वीत । प्राप्तिभूमिष्ठोऽमुल्यग्रेण मेरुशिखरभास्क. रादीनपि स्पृशेत् । प्राकाम्यमप्सु भूमाविव गच्छेत् भूमावप्स्विव निमज्जेदुन्मज्जेच्च । जङ्घाचारणत्वं येनाग्निशिखाधूमनीहारावश्यायमेघवारिधारामर्कटतन्तुज्योतिष्करश्मिवायूनामन्यतममप्युपादाय वियति गच्छेत् । वियद्गतिचारणत्वं येन वियति भूमाविव गच्छेत् शकुनिवञ्च प्रडीनावडीनगमनानि कुर्यात् । अप्रतिघातित्वं पर्वतमध्येन वियतीव गच्छेत् । अन्तर्धानमदृश्यो भवेत् । कामरूपित्वं नानाश्रयानेकरूपधारणं युगपदपि कुर्यात् तेजोनिसर्गसामर्थ्यमित्येतदादि ॥ इति इन्द्रियेषु मतिज्ञानविशुद्धिविशेषादरात्पर्शनास्वादनघ्राणदर्शनश्रवणानि विषयाणां कुर्यात् । संभिन्नज्ञानत्वं युगपदनेकविषयपरिज्ञानमित्येतदादि ॥ मानसं कोष्टबु. द्वित्वं बीजबुद्धित्वं पदप्रकरणोद्देशाध्यायप्राभृतवस्तुपूर्वाङ्गानुसारित्वमृजुमतित्वं विपुलमतित्वं Jain Education Internat 39 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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