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________________ १२ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भिन्न) के संयोगसे जीवको, अजीव ( ईषत् जीव ) को, दो जीवोंको, दो अजीवोंको, बहुत जीवोंको, वा बहुत अजीवोंको होता है; इत्यादि विकल्प हैं । और उभयके संयोगसे, अर्थात् आत्मा तथा परसंयोगसे जीवको, नो ( ईषत् ) जीवको, दो जीवोंको, दो अजीवोंको, बहुत जीवोंको, बहुत नो जीवोंको इत्यादि विकल्प नहीं हैं और शेष विकल्प हैं । साधन ( जिससे होता है ) जैसे सम्यग्दर्शन किससे उत्पन्न होता है। निसर्ग तथा अधिगमसे होता है, यह प्रथम कहचुके हैं। उनमेंसे विसर्गतो कहचुके हैं। और अधिगमतो सम्यग् व्यायाम है, अर्थात् गुरुआदिके समीप रहनेवाले शिष्यकी जो सम्यग्दर्शनके उत्पन्न करनेवाली शुभ क्रिया है वही व्यायाम है । निसर्गज तथा अधिगमज दोनों प्रकारका सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शनावरणीय जो कर्म है उसके क्षयसे उपशमसे अथवा क्षयोपशम दोनोंसे होता है । अधिकरण तीन प्रकारका है, एक आत्माके सन्निधानसे, दूसरा पर अर्थात् अनात्माके सन्निधान (सामीप्य ) से, और तीसरा आत्मा और अनात्मा एतदुभय सन्निधानसे ऐसा कहना चाहिये । आत्माका सन्निधान इसका यह तात्पर्य है कि आत्माके आभ्यन्तरीय सामीप्य वा सान्निध्यसे, । और पर सन्निधानका तात्पर्य आत्माके बाह्य सन्निधानसे है । और उभय सन्निधानका अर्थ बाह्य तथा आभ्यन्तर उभय सन्निधान है । आत्माके सन्निधानका उदाहरण जैसे जीवमें सम्यग्दर्शन है, जीवमें ज्ञान है, तथा जीवमें चारित्र है इत्यादि । और बाह्य सन्निधानका उदाहरण जैसे जीवमें सम्यग्दर्शन, नो (ईषत् ) जीवमें सम्यग्दर्शन, इत्यादि पूर्वोक्त विकल्प हो सकते हैं। और उभयसन्निधानमें उभयसन्निधानसे अप्राप्य तथा सद्भूत पूर्वोक्त भङ्गविकल्प होते हैं । स्थिति; जीवमें सम्यग्दर्शन कितने कालतक स्थित रहता है। जीवकी सम्यग्दृष्टि दो प्रकारकी होती है, एक तो सादिसान्त अर्थात् आदिसहित और अन्तसहित, और दूसरी सादिअनन्त, अर्थात् उत्पन्न होकर जिस सम्यग्दृष्टिका पुनः अन्त वा नाश नहीं होता । और सम्यग्दर्शन सादि तथा अन्तसहितही होता है । वह सम्यग्दर्शन न्यूनसे न्यून अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है, अर्थात् कमसे कम अन्तर्मुहर्त पर्यन्त सम्यग्दर्शनकी स्थिति रहती है । और अधिकसे अधिक अर्थात् उत्कृष्टतासे किंचित् अधिक षट्षष्टि छियासठ ६६ सागरोपम कालपर्यन्त रहता है । और सम्यग्दृष्टि सादि अनन्त है। जैसे सयोग अर्थात् त्रिविधयोगसहित, शैलेशी प्राप्त केवली और सिद्ध हैं ॥ विधान क्षय आदि हेतुओंके त्रिविध होनेसे तीन प्रकारका है । और यह सम्यग्दर्शनका तीन प्रकारका विधान ( भेद) दर्शनावरणीय कर्मके तथा दर्शन मोहके क्षयादि तीनों हेतुओंसे है । जैसे क्षायिक सम्यग्दर्शन, औपशमिक सम्यग्दर्शन, तथा क्षायौपशमिक सम्यग्दर्शन, इन औपशमिक, क्षायौपशमिक, और क्षायिक, सम्यग्दर्शनोंमेंसे पर पर अर्थात् आगे आगेके में विशुद्धि और प्रकर्षता (अधिक उत्तमता) है ॥ ७ ॥onal & Private use only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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