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________________ २१४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रकीर्णक चन्द्र प्रतिमा आदि तप ६ रूप प्रायश्चित्त अनेक प्रकारका है । और छेद, अपवर्तन तथा अपहार इन शब्दोंके भी एकही अर्थ हैं । और यह छेद वा अपवर्तनरूप प्रायश्चित्त भी प्रवज्या (गमन ), दिन, पक्ष, मास ( महीना ) तथा वर्ष इनमेंसे किसीमें होता है ७ । मासिकादि परिहार तथा त्याग है ८ । उपस्थापन, पुनर्दीक्षण (फिरसे दीक्षा ग्रहण करनी ), पुनश्चरण ( पुनः करना ) तथा पुनर्वतारोपण ये सब भी एकार्थबोधक शब्द हैं ९ यह सब नौ ९ प्रकारके प्रायश्चित्त देश, काल, शक्ति, संहनन (शरीरके रचना विशेषसे सामर्थ्य), व संयमकी विराधनाको तथा शरीर, इन्द्रिय, जाति, और गुणसे उत्पन्न उत्कर्षता (अधिकता वा उत्तमता) को पाकर शुद्धताके लिये यथायोग्य दिये जाते हैं और किये भी जाते हैं। "चिती" संज्ञाने यह सम्यग् ज्ञान व विशुद्धि अर्थमें धातु है, उस (चिती धातु)से निष्ठाक्त (त) प्रत्यय करनेसे अथवा उणादि 'त' प्रत्यय करनेसे “चित्त" यह शब्द सिद्ध होता है । तो इससे यह अभिप्राय सिद्ध होता है कि इन पूर्वोक्त आलोचन आदि ९ प्रकारके क्लेशरूप प्रायश्चित्त नामक विशेष तपोंसे जिसको अप्रमाद अर्थात् सावधानता प्राप्त हुई ऐसा पुरुष व्यतिक्रम (निषिद्धाचरण ) को प्रायः जान जाय, और जानकर पुनः उनको जिसके द्वारा नहीं करता उसको प्रायश्चित्त कहते हैं । अथवा प्रायश्चित्त शब्दसे अपराधका ग्रहण है तो जिसके द्वारा अपराधोंसे शुद्ध हों इस कारणसे वह प्रायश्चित्त कहा जाता है ॥ २२ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः॥ २३ ॥ विनयश्चतुर्भेदः । तद्यथा । ज्ञानविनयः दर्शनविनयः चारित्रविनयः उपचारविनयः । तत्र ज्ञानविनयः पञ्चविधः मतिज्ञानादिः। दर्शनविनयः एकविध एव सम्यग्दर्शनविनयः। चारित्रविनयः पञ्चविधः सामायिकविनयादिः । औपचारिकविनयोऽनेकविधः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राधिगुणाधिकेष्वभ्युत्थानासनप्रदानवन्दनानुगमादिः विनीयते तेन तस्मिन्वा विनयः ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-विनयरूप आभ्यन्तर तप चार प्रकारका है। जैसे-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय । इनमें से ज्ञानविनय पांच प्रकारका है । जैसे–मतिज्ञान विनय, श्रुतज्ञान विनय, अवधिज्ञान विनय, मनःपर्ययज्ञान विनय, तथा केवलज्ञान विनय। और दर्शनविनय एकही प्रकारका है; जैसे-सम्यग्दर्शन विनय । चारित्रविनय पांच प्रकारका है जैसे-सामायिक, संयमचारित्र विनय, छेदोपस्थाप्य संयमचारित्र विनय, परिहारविशुद्धि संयमचारित्र विनय, सूक्ष्मसंयम चारित्र विनय, तथा यथाख्यात संयम चारित्र विनय। और औपचारिक विनय अनेक प्रकारका है । जैसे–सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तथा चारित्र आदि गुणोंमें जो अधिक महात्मा जन हैं उनके विषयमें अभ्युत्थान विनय ( उनको देखके खड़े होजाना), आसनप्रदान विनय (उनको आसन देना), वन्दना १ प्रायश्चतयति येन तत्प्रायश्चित्तम् । . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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