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________________ २१५ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विनय और अनुगमनादि विनय (उनके चलते समय कुछ दूरतक पीछे चलना इत्यादि) ॥ २३ ॥ ____ आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानगणकुलसङ्घसाधुसमनोज्ञानाम् ॥ २४॥ भाष्यम्-वैयावृत्त्यं दशविधं । तद्यथा । आचार्यवैयावृत्त्यं उपाध्यायवैयावृत्त्यं तपस्विवैयावृत्त्यं शैक्षकवैयावृत्त्यं ग्लानवैयावृत्त्यं कुलवैयावृत्त्यं गणवैयावृत्त्यं सङ्घवैयावृत्त्यं साधुवैयावृत्त्यं समनोज्ञवैयावृत्त्यमिति । व्यावृत्तभावो वैयावृत्त्यं व्यावृत्तकर्म च । तत्राचार्यः पूर्वोक्तः पञ्चविधः । आचारगोचरविनयं स्वाध्यायं वाचार्यादनु तस्मादुपाधीयत इत्युपाध्यायः । सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहार्थ चोपाधीयते सङ्ग्रहादीन् । वास्योपाधीतइत्युपाध्यायः । द्विसङ्ग्रहो निर्ग्रन्थ आचार्योपाध्यायसङ्ग्रहः । त्रिसङ्ग्रहा निर्ग्रन्थी आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीसङ्ग्रहा। प्रवतिनी दिगाचार्येण व्याख्याता । हिताय प्रवर्तते प्रवर्तयति चेति प्रवर्तिनी। विकृष्टोग्रतपोयुक्तस्तपस्वी । अचिरप्रव्रजितः शिक्षयितव्यः शिक्षः शिक्षामहतीति शैक्षो वा । ग्लानः प्रतीतः।गणः स्थविरसन्ततिसंस्थितिः। कुलमाचार्यसंततिसंस्थितिः। सङ्घश्चतुर्विधः श्रमणादिः । साधवः संयताः । संभोगयुक्ताः समनोज्ञाः । एषामन्नपानवस्त्रपात्रप्रतिश्रयपीठफलकसंस्तारादिभिर्धर्मसाधनैरुपग्रहः शुश्रूषा भेषजक्रिया कान्तारविषमदुर्गोपसर्गेष्वभ्युपपत्तिरि. त्येतदादि वैयावृत्त्यम् ॥ सूत्रार्थ-वि०व्या०-वैयावृत्त्य नाम आभ्यन्तर तप दश प्रकारका है। जैसे-आचार्यवैयावृत्त्य १ उपाध्यायवैयावृत्त्य २ तपस्विवैयावृत्त्य ३ शैक्षक वा शिक्षकवैयावृत्त्य ४ ग्लानवैयावृत्त्य ५ गणवैयावृत्त्य ६ कुलवैयावृत्त्य ७ सङ्घवैयावृत्त्य ८ साधुवैयावृत्त्य ९ और समनोज्ञवैयावृत्त्य १० । व्यावृत्त अर्थात् सेवा शुश्रूषामें तत्पर उसका जो भाव अथवा कर्म है उसको वैयावृत्त्य कहते हैं। उनमें आचार्य पांच प्रकारके होते हैं, यह प्रथम कहचुके हैं। इससे आचार्य आदिकी सेवा चाकरी यह आचार्य्यवैयावृत्त्यका तात्पर्य है। अतएव आचार्यविषयक जो विनय है अथवा आचार्यसे विनयपूर्वक स्वाध्याय यह आचार्य-वैयावृत्त्य है। और जिसके समीप आके पढ़ें वह उपाध्याय है। अथवा संग्रह आदि जिसके निकट आके प. वह उपाध्याय है । संग्रह आदि ये हैं, जैसे द्विसंग्रह, निर्ग्रन्थ, आचार्योपाध्यायसंग्रह, तथा त्रिसंग्रह, निम्रन्थी, आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनी संग्रहा। यह प्रवर्तिनी आदिक आचार्यसे ही व्याख्यात हैं । हितके लिये जो स्वयं प्रवृत्त हो अथवा दूसरेको प्रवृत्त करै वह प्रवतिनी अर्थात् प्रवृत्त करानेवाली है। और अतिकठोर अथवा उत्तम तथा उग्र (तीव्र ) तपकरके जो युक्त हो वह तपस्वी है, उस तपस्वीके लिये जो वैयावृत्त्य है, अर्थात् तपस्वियोंके अर्थ जो विनय सेवादि है वह तपस्विवैयावृत्त्य है । थोड़े कालसे जिसने संन्यास लिया है तथा जो शिक्षाके योग्य है वह शिक्ष है, अथवा जो शिक्षाके योग्य है वह शैक्ष है उसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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