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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कृत्स्नं क्षीयते ततोऽन्तमुहूर्त छद्मस्थवीतरागो भवति । ततोऽस्य ज्ञानदर्शनावरणान्तराय. प्रकृतीनां तिसृणां युगपत्क्षयो भवति । ततः केवलमुत्पद्यते ॥
सूत्रार्थ विशेषव्याख्या-मोहनीय कर्मके क्षीण होनेपर तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षीण होनेपर केवल ज्ञान दर्शन उत्पन्न होता है । इन चारों अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय कर्म प्रकृतियोंका क्षय केवल ज्ञानका हेतु है, ( मोहनीयक्षयात् ) तथा ( ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात्) इनके क्षयसे उत्पन्न होता है. उक्त दोनों स्थलोमें जो पञ्चमी निर्देश है, अर्थात् पञ्चमी विभक्तिका विधान आचार्य्यने किया है वह हेतु अर्थमें पञ्चमी है । तात्पर्य यह है कि चारों प्रकृतियोंके क्षयरूप निमित्तसे केवल ज्ञानकी उत्पत्ति है । और "मोहक्षयात्" यह पृथक् जो पञ्चमीनिर्देश किया है सो उस क्रमकी प्रसिद्धिके अर्थ किया है, जिससे कि यह अर्थ स्पष्ट रूपसे भान हो कि प्रथम सम्पूर्ण मोहनीय प्रकृतिका क्षय होता है उसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तकालमें छद्मस्थ वीतराग होता है; और छमस्थ वीतराग होनेके पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, तथा अन्तराय इन तीनों प्रकृतियोंका एक कालमें ही क्षय होता है । और इन तीनों प्रकृतियोंके क्षयके पश्चात् केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ॥१॥ ___ अत्राह । उक्तं मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलमिति । अथ मोहनीयादीनां क्षयः कथं भवतीति । अत्रोच्यते
अब कहते हैं कि यह तो आपने कहा कि मोहनीय प्रकृतिके क्षय तथा ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय तथा अन्तराय, इन कर्मप्रकृतियोंके क्षयसे केवल (केवलज्ञान) उत्पन्न होता है, परंतु मोहनीय आदि प्रकृतियोंका क्षय किस प्रकारसे होता है ? इसलिये आगेका सूत्र कहते हैं।
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ॥२॥ मिथ्यादर्शनादयो बन्धहेतवोऽभिहिताः । तेषामपि तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयादभावो भवति सम्यग्दर्शनादीनां चोत्पत्तिः। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् तन्निसर्गादधिगमाद्वेत्युक्तम् । एवं संवरसंवृतस्य महात्मनः सम्यग्व्यायामस्याभिनवस्य कर्मण उपचयो न भवति पूर्वोपचितस्य च यथोक्तार्नर्जराहेतुभिरत्यन्तक्षयः । ततः सर्वद्रव्यपर्यायविषयं परमैश्वर्यमनन्तं केवलं ज्ञानदर्शनं प्राप्य शुद्धो बुद्धः सर्वज्ञः सर्वदर्शी जिनः केवली भवति । ततः प्रतनुशुभचतुःकर्मावशेष आयुःकर्मसंस्कारवशाद्विहरति ।
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान आदि बन्धके हेतु कहे हैं, उनका अर्थात् बन्धके हेतुओंका भी ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियोंके क्षयसे अभाव होता है, और सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्ति भी होती है। "तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्" तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है, और निसर्ग तथा अधिगमसे होता है; यह विषय प्रथम अध्यायमें
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