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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
- १०७ अर्थोंसे जो सिद्ध हैं, अथवा जिनके संपूर्ण अभ्युदयके अर्थ सिद्ध होगये हैं वे सर्वार्थसिद्ध हैं । जिन्होंने संपूर्ण कर्मोको प्रायः जीतलिया है, अर्थात् जिनका भद्र (उत्तम) समय उपस्थित है वे विजय, वैजयन्त और जयंत हैं, २२ परीषहोंसे जो पराजित नहीं हुए वे अपराजित हैं; तथा संपूर्ण अर्थों में जो सिद्ध हैं अर्थात् जिनके उत्तम अर्थ सिद्धप्राय हैं, वे सर्वार्थसिद्ध हैं. इस रीतिसे विजय आदि शब्दोंके समासविग्रहार्थ समझलेने । स्थितिप्रभावसुखातिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥२१॥
सूत्रार्थ:-ये जो सौधर्मादिकल्पोंके देव कहे हैं, वे पूर्व २ की अपेक्षासे पर २ इन स्थिति-प्रभाव आदि-पदार्थों में अधिक २ हैं।
भाष्यम्-यथाक्रमं चैतेषु सौधर्मादिषूपर्युपरि देवाः पूर्वतः पूर्वत एभिः स्थित्यादिभिरथैरधिका भवन्ति ॥ तत्र स्थितिरुत्कृष्टा जघन्या च परस्ताद्वक्ष्यते । इह तु वचने प्रयोजनं येषामपि समा भवति तेषामप्युपर्युपरि गुणाधिका भवतीति यथा प्रतीयेत।प्रभावतोऽधिकाः । यः प्रभावो निग्रहानुग्रहविक्रियापराभियोगादिषु सौधर्मकाणां सोऽनन्तगुणाधिक उपर्युपरि । मन्दाभिमानतया त्वल्पतरसंक्लिष्टत्वादेते न प्रवर्तन्त इति ॥ क्षेत्रस्वभावजनिताच शुभपुद्गलपरिणामात्सुखतो द्युतितश्चानन्तगुणप्रकर्षणाधिकाः ॥ लेश्याविशुद्धयाधिकाः । लेश्यानियमः परस्तादेषां वक्ष्यते । इह तु वचने प्रयोजनं यथा गम्येत यत्रापि विधानतस्तुल्यास्तत्रापि विशुद्वितोऽधिका भवन्तीति । कर्मविशुद्धित एव वाधिका भवन्तीति ॥ इन्द्रियविषयतोऽधिकाः । यदिन्द्रियपाटवं दूरादिष्टविषयोपलब्धौ सौधर्मदेवानां तत्प्रकृष्टतरगुणत्वादल्पतरसंक्लेशत्वाचाधिकमुपर्युपरीति ॥ अवधिविषयतोऽधिकाः सौधर्मैशानयोर्देवा अवधिविषयेणाधो रत्नप्रभां पश्यन्ति तिर्यगसङ्घयेयानि योजनसहस्राण्यूर्ध्वमास्वभवनात् । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः शर्कराप्रभां पश्यन्ति तिर्यगसङ्खयेयानि योजनशतसहस्राण्यूर्ध्वमास्वभवनात् । इत्येवं शेषाः क्रमशः। अनुत्तरविमानवासिनस्तु कृत्स्ना लोकनालिं पश्यन्ति । येषामपि क्षेत्रतस्तुल्योऽवधिविषयः तेषामप्युपर्युपरि विशुद्धितोऽधिको भवतीति ॥
विशेषव्याख्या—सौधर्म ऐशान आदि कल्पोंके जो ऊपर २ कल्पोंके तथा जो नव अवेयक आदिक हैं उन सबमें ऊपर २ के देव पूर्व २ देवोंकी अपेक्षासे स्थिति-प्रभावआदिक पदार्थोंमें अधिक २ होते गये हैं । अर्थात् पूर्व २ देवोंकी अपेक्षा पर २ के देवोंकी स्थिति अधिक कालपर्यन्त है, उनके प्रभाव (महिमा) और सुख आदिभी अधिक हैं। उनमें स्थिति उत्कृष्ट तथा जघन्य दो प्रकारकी आगे कहेंगे। यहां तो इस कथनमें तात्पर्य केवल यह है कि जिनकी समान स्थिति है उनमेंभी ऊपर २ पूर्व २की अपेक्षा गुणसे अधिक हैं ऐसा भान हो । अब प्रभावसे अधिक वर्णन करते हैं। जैसे-निग्रह तथा अनुग्रह अर्थात् वशमें लाकर दण्ड देने वा कृपा करनेका सामर्थ्य, विक्रिया (रूपादिधारणशक्ति) अन्यके ऊपर अभियोग अर्थात् आक्रमण करके पराजय करनेकी शक्ति इत्यादि प्रभाव जैसा सौधर्मकल्पनिवासी देवी देवोंका है, उससे अनन्तगुण अधिक ऊपर २ के
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