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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् देवोंमें है। किन्तु पूर्वकी अपेक्षासे इनमें मन्द अभिमान होनेसे तथा अति अल्प संक्लिष्ट कर्म होनेसे ये निग्रहानुग्रहादिमें प्रवृत्त नहीं होते । तथा क्षेत्रके स्वभावसे उत्पन्न और शुभ पुद्गलोंके परिणामोंसेभी सुखसे तथा युति (शरीरादिकान्ति वा प्रकाश )सेभी सौधर्मकल्पनिवासी देवोंकी अपेक्षा ऊपरके अनन्तगुण अधिक हैं, अर्थात् उनका सुख और द्युति इनसे अनन्तगुण प्रकर्षतामें अधिक है । और ऐसेही लेश्याकी विशुद्धिसेभी पूर्व २ की अपेक्षासे ऊपरके देवोंकी लेश्या विशुद्ध हैं। इनकी लेश्याओंके नियम आगे कहेंगे। यहां तो इतने कथनमें तात्पर्य है कि जिसमें यह प्रतीत होजाय कि जहांपर विधानसे तुल्य हैं वहांपरभी लेश्याकी विशुद्धिसे अधिक हैं । अथवा कर्मकी विशुद्धिसेभी अधिक होते हैं । अब इन्द्रियोंके विषयद्वाराभी पूर्व २ की अपेक्षा ऊपर २ के अधिक हैं, ऐसा कहते हैं । जैसे-जो इन्द्रियोंका पाटव (सामर्थ्यविशेष) दूरसे इष्ट विषयोंकी प्राप्तिमें सौधर्मकल्पनिवासी देवोंका है उससे प्रकृष्टतर गुण होनेसे, और अल्पतर संक्लेश होनेसे ऊपर २ के देवोंका अधिक है । अवधिज्ञानके विषयसेभी ऊपर २ के अधिक हैं। जैसेसौधर्म तथा ऐशानकल्पके देव अवधिविषयसे अधोभागमें तो रत्नप्रभा भूमिको देखते हैं, तिर्यग् भागमें असंख्यात योजन शत-सहस्र, और ऊर्ध्व भागमें अपने भवनपर्यन्त देखते हैं । तथा सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्पके देव अधोभागमें शर्कराप्रभाको तिर्यक् भागमें असंख्येय योजन सहस्र और ऊर्ध्वभागमें अपने भवनोंतक देखते हैं। इसी रीतिसे क्रमसे शेष देवोंको अधिक २ अवधिविषयमें समझलेना । और अनुत्तरविमानवासी देव तो अवधिज्ञानसे संपूर्ण इस लोकनाडीको देखते हैं । और जिनका क्षेत्रसे अवधिका विषय समान है, उनका ऊपर २ बिशुद्धिसे अधिक है, अर्थात् क्षेत्रमें समानता होनेपरभी ऊपर २ के देवोंका अवधि विषय अधिक विशुद्ध है, ऐसा जानना चाहिये । गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २२ ॥ सूत्रार्थः-गति, शरीर, परिग्रह तथा अभिमानसे पूर्व २ की अपेक्षा ऊपर २ के देव हीन अर्थात् न्यून हैं। __ भाष्यम्-गतिविषयेण शरीरमहत्त्वेन महापरिग्रहत्वेनाभिमानेन चोपर्युपरि हीनाः । तद्यथा-द्विसागरोपमजघन्यस्थितीनां देवानामासप्तम्यां गतिविषयस्तिर्यगसङ्खयेयानि योजनकोटीकोटीसहस्राणि । ततः परतो जघन्यस्थितीनामेकैकहीना भूमयो यावत्तृतीयेति । गत. पूर्वाश्च गमिष्यन्ति च तृतीयां देवाः परतस्तु सत्यपि गतिविषये न गतपूर्वा नापि गमिष्यन्ति । महानुभावक्रियातः औदासीन्याञ्चोपर्युपरि देवा न गतिरतयो भवन्ति ॥ सौधर्मेशानयोः कल्पयोर्देवानां शरीरोच्छ्रायः सप्तारत्नयः । उपर्युपरि द्वयोयोरेकारनिहींना आसहस्रारात् । आनतादिषु तिस्रः । अवेयकेषु द्वे । अनुत्तरे एका इति ॥ सौधर्मे विमानानां द्वात्रिंशच्छतसहस्राणि । ऐशानेऽष्टाविंशतिः । सानत्कुमारे द्वादश । माहेन्द्रेऽष्टौ । ब्रह्मलोके चत्वारि शतस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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