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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २६॥ सूत्रार्थ-विघ्न करना अंतराय ( कर्म )के आस्रवका हेतु होता है। भाष्यम्-दानादीनां विघ्नकरणमन्तरायस्यास्रवो भवतीति । एते साम्परायिकस्याष्टविधस्य पृथक् पृथगास्रवविशेषा भवन्तीति ॥ .
इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे भाष्यतः षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥ विशेषव्याख्याः —दानादिकके विषयमें जो विघ्न आदिका करना है वह अंतराय कर्मका आस्रव होता है । यह दर्शनावरण आदि अष्ट (आठ) प्रकारके साम्परायिकके पृथक् २ आस्रव दर्शाये गये ॥ २६ ॥ ...इत्याचार्योपाधिधारिठाकुरप्रसादशर्मप्रणीतभाषाटीकासमलतेऽर्हत्प्रवचन
सङ्ग्रहे भाष्यतः षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
अथ सप्तमोऽध्यायः। अत्राह । उक्तं भवता सद्वेद्यस्यास्रवेषु भूतव्रत्यनुकम्पेति, तत्र किं व्रतं को वा व्रतीति । अत्रोच्यते__ अब यहांपर कहते हैं 'आपने प्रथम यह कहा कि सब प्राणियोंपर तथा व्रतियोंमें विशेष अनुकम्पा, तथा दानादि सद्वेद्य कर्मका आस्रव होता है (अ. ६ सू. १२), सो व्रत क्या है ? । और व्रतको धारण करनेवाले व्रती कौन हैं ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र कहते हैं:
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ सूत्रार्थ-हिंसा और असत्य भाषण आदिसे निवृत्त होनेको व्रत कहते हैं । भाष्यम्-हिंसाया अनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहाच्च कायवाङ्मनोभिर्विरतिव्रतम् । विरतिर्नाम ज्ञात्वाभ्युपेत्याकरणम् । अकरणं निवृत्तिरुपरमो विरतिरित्यनर्थान्तरम् ।।
विशेषव्याख्या–हिंसासे, अनृत (मिथ्या भाषणादि )से, स्तेय अर्थात् चोरीसे, अब्रह्म अर्थात् मैथुनप्रसंगसे और परिग्रह अर्थात् पदार्थसंचयसे शरीर, वाणी और मनके द्वारा जो विरति अर्थात् उपरम है उसको व्रत कहते हैं। विरति शब्दका अर्थ है कि किसी पदार्थको जानकर उसे तदनुसार स्वीकार करके त्यागना । और अकरण (न करना), उपरम तथा निवृत्ति, विरति ये सब समानार्थवाची शब्द हैं ।
देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ भाष्यम्-एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति ॥
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्याः -इन हिंसा आदि पांच पापोंसे एकदेशविरति तो अणुव्रत होता है और सर्वथा हिंसादिसे निवृत्ति होजानेसे महावत होता है ॥ २ ॥
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