SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रथम अध्यायः। मूलसूत्रम्-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ सूत्रार्थः-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है।॥१॥ _भाष्यम्-सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येष त्रिविधो मोक्षमार्गः। तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदेक्ष्यामः । शास्त्रानुपूर्वीविन्यासार्थ तूदेशमात्रमिदमुच्यते । एतानि च समस्तानि मोक्षसाधनानि । एकतराभावेऽप्यसाधनानीत्यतस्त्रयाणां ग्रहणम् । एषां च पूर्वलाभे भजनीयमुत्तरं । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः । तत्र सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातः समञ्चतेर्वा । भावः । दर्शनमिति । दृशेरव्यभिचारिणी सर्वेन्द्रियानिन्द्रियार्थप्राप्तिरेतत्सम्यग्दर्शनं । प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनं । संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । एवं ज्ञानचारित्रयोरपि ॥ विशेष व्याख्याः -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र (आचरण) यह तीन प्रकारका मोक्षमार्ग है । उस त्रिविध मोक्षमार्गको हम लक्षण तथा परीक्षा भेदनिरूपणपूर्वक आगे विस्तारसे कहेंगे; और यहांपर केवल शास्त्रानुपूर्वी (क्रम) की रचनाके प्रदर्शनार्थ केवल उद्देश मात्र कहते हैं । ये तीनों मिलेहुये, अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यकचारित्र तीनों मिलकर ही मोक्षमार्गके साधक हैं, क्योंकि तीनोंमेंसे एकके भी न होनेपर एक वा दो मोक्षके साधन नहीं हो सकते, इसलिये भगवान् सूत्रकारने तीनोंका ग्रहण किया है । इनमेंसे पूर्वका लाभ होनेसे उत्तरको प्राप्त करना चाहिये; (अर्थात् सम्यग्दर्शनका लाभ होनेसे उत्तर सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यक् चारित्रको निजप्रयत्नसे प्राप्त करना चाहिये, ) और उत्तरके लाभमें तो पूर्वका लाभ अवश्यही नियत है, (तात्पर्य यह कि सम्यग्ज्ञानका लाभ होनेसे सम्यद्गर्शनका लाभ अवश्य नियत है, तथा सम्यक्चारित्रके लाभसे दर्शन, ज्ञान दोनोंका लाभ नियत है)। सूत्रमें दर्शन आदिका विशेषण जो सम्यक् पद दिया है वह प्रशंसा अर्थका द्योतक वा वाचक निपात है, (अर्थात् प्रशंसित उत्तम दर्शन आदि मोक्ष मार्गके साधन हैं)। अथवा सम् उपसर्गपूर्वक अञ धातुसे क्विप्प्रत्यय करनेसे सम्यक् बनता है. (व्यभिचारशून्य ) अर्थात् अवश्य संपूर्ण इन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय के द्वारा जो पदार्थोंकी प्राप्ति है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं; यह दर्शन पद दृश धातुसे ल्युट् (अन) प्रत्यय करनेसे सिद्ध होता है. । प्रशस्त अर्थात् उत्तम (निन्दाव्यभिचार आदिसे शून्य) १. पदार्थोके केवल नाम मात्रके निरूपणको उद्देश कहते हैं-अनुवादकारः. २. व्युत्पत्तिपक्षमेंभी सम्यक्पद प्रशंसारूप अर्थका प्रतिपादक होकर दर्शनआदि पदोंका विशेषण होता है इसके लिये प्रकारान्तर कहते हैं । अर्थात् जो पूर्णरूपसे द्रव्यभावोंका प्राप्त हो वह सम्यग्दर्शन आदि । अनु० Jain Education International For.Personal &Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy