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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । जो दर्शन है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. । अथवा संगतं (निरन्तर व्यवधानशून्य ) जो दर्शन है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. । इसी प्रकार ज्ञान तथा चारित्रमेंभी सम्यक् पदकी योजना करनी चाहिये.॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ सूत्रार्थः-तत्वार्थको जो श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन हैं । भाष्यम्-तत्त्वानामर्थानां श्रद्धानं तत्त्वेन वार्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानम् तत् सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वेन भावतो निश्चितमित्यर्थः । तत्त्वानि जीवादीनि वक्ष्यन्ते । त एव चार्थास्तेषां श्रद्धानं तेषु प्रत्ययावधारणम् । तदेवं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति ॥ विशेष व्याख्याः -(जिनशास्त्रोंसे प्रतिपाद्य ) तत्त्वभूत पदार्थोंका श्रद्धान, अथवा तत्त्वसे जो अर्थोंका श्रद्धान है उसको तत्त्वार्थश्रद्धान कहते हैं, और उसी तत्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं, तत्त्वसे अर्थात् भाव (यथार्थरूप) से निश्चियको सम्यग्दर्शन कहते हैं; (तात्पर्य यह है कि, जो पदार्थ जैसा है उसीरूपसे उसका जो निश्चय है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं) जीव आदि पदार्थ तत्त्व कहेजाते हैं जिनको हम आगे निरूपण करेंगे। वेही तत्त्वभूत जीवादि जो पदार्थ हैं, उनका श्रद्धान अर्थात् उनके यथार्थ स्वरूपमें विश्वास करनाही सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार प्रशम, अर्थात् रागादिकोंकी उत्कटताका अभाव, संवेग, अर्थात् संसार देह भोग इनका भय, निर्वेद, अर्थात् संसारके पदार्थों में घृणापूर्वक वैराग्य, अनुकम्पा (सर्वभूतदया) और शास्त्रबोधित पदार्थआदिमें अस्तित्वकी । अभिव्यक्ति (आविर्भाव) रूप जो तत्त्वार्थश्रद्धान है वही सम्यग्दर्शन है. ॥ २ ॥ तन्निसर्गादधिगमादा ॥३॥ सूत्रार्थ-वह सम्यग्दर्शन निसर्ग तथा अधिगमसे होता है। भाष्यम्-तदेतत्सम्यग्दर्शनं द्विविधं भवति । निसर्गसम्यग्दर्शनमधिगमसम्यग्दर्शनं च । निसर्गादधिगमाद्वोत्पद्यत इति द्विहेतुकं द्विविधम् ॥ निसर्गः परिणामः स्वभावः अपरोपदेश इत्यनान्तरम् । ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीव इति वक्ष्यते । तस्यानादौ संसारे परिभ्रमतः कर्मत एव कर्मणः स्वकृतस्य बन्धनिकाचनोदयनिर्जरापेक्षं नारकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभवग्रहणेषु विविधं पुण्यपापफलमनुभवतो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वाभाव्यात् तानि तानि परिणामाध्यवसायस्थानान्तराणि गच्छतोऽनादिमिथ्यादृष्टेरपि सतः परिणामविशेषादपूर्वकरणं ताहग्भवति येनास्यानुपदेशात्सम्यग्दर्शनमुत्पद्यत इत्येतन्निसर्गसम्यग्दर्शनम् ॥ अधिगमः अभि १. जो पदार्थ जैसें अवस्थित है तैसा तिसका होना सो 'तत्व' है, और जो निश्चय किया जावे वह अर्थ है; तत्त्वरूप जो निश्चय सो 'तत्वार्थ' है; तात्पर्य्य कि, जो पदार्थ जिसप्रकार अवस्थित है उसका उसी प्रकारसे ग्रहण-निश्चय-होना सो “तत्वार्थ' है-संशोधकः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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