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___ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्।
१८७ अर्थात् जो दान देनेमें प्रतिबन्धक है, लाभान्तराय-अर्थात् जो लाभ होनेमें प्रतिबन्धक है वह लाभका अन्तराय है, भोगका जो प्रतिबन्धक है वह भोगका अन्तराय है; उपभोगका प्रतिबन्धक उपभोगान्तराय है; और जो वीर्यका अन्तराय है अर्थात् प्रतिबन्धक है वह वीर्यान्तराय है ॥ १४ ॥
उक्तः प्रकृतिबन्धः । स्थितिबन्धं वक्ष्यामः । प्रकृतिबन्ध कह चुके, अब इसके आगे स्थितिबन्ध कहेंगे
आदितस्तिमृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१५॥
भाष्यम्-आदितस्तिसृणां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेद्यानामन्तरायप्रकृतेश्व त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ।।
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या—आदिसे अर्थात् “आयो ज्ञानदर्शन" (अ. ८ सू. ५) इस सूत्रके आरम्भकमसे जो तीन कर्मप्रकृति ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा वेदनीय हैं, उनकी तथा अष्टम अन्तरायरूप कर्म प्रकृतिकी त्रिंशत् (तीस ३०) सागरोपम कोटिकोटि परा स्थिति है । अर्थात् अधिकसे अधिक ये चार कर्मप्रकृतियां जीवके साथ ३० सागरोपम कोटिकोटि रहसकती हैं ॥ १५ ॥
सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १६॥ भाष्यम्-मोहनीयकर्मप्रकृतेः सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः॥
सूत्रार्थ-मोहनीय जो कर्मप्रकृति है उसकी परा स्थिति सत्तर (७०) सागरोपम कोटिकोटि है ॥ १६ ॥
नामगोत्रयोविंशतिः ॥ १७॥ भाष्यम्-नामगोत्रप्रकृत्योविंशतिः सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥ .
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-नाम तथा गोत्रप्रकृतिकी परा स्थिति बीस (२०) सागरोपम कोटिकोटि है ॥ १७ ॥
त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥१८॥ भाष्यम्-आयुष्कप्रकृतेस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परा स्थितिः ॥
सूत्रार्थ--विशेषव्याख्या-आयुष्कप्रकृतिकी परा स्थिति तेतीस (३३) सागरोपम है ॥ १८ ॥
अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १९॥ भाष्यम्-वेदनीयप्रकृतेरपरा द्वादश मुहूर्ताः स्थितिरिति ॥
सूत्रार्थ—विशेषव्याख्या-वेदनीयप्रकृतिकी अपरा स्थिति अर्थात् न्यूनसे न्यून स्थिति द्वादश (बारह १२) मुहूर्त कालपर्यन्त है ॥ १९॥
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