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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१२७ अब यहांपर कहते हैं कि जो उपक्रम (आरंभ) सहित तथा अपवर्तनीय (विषादिद्वारा न्यून करने योग्य) आयुषसहित हैं उनका तो जीवितोपग्रह और मरण उपग्रहरूप उपकार युक्त है । किन्तु जिनकी आयुष्का अपवर्तन नहीं होता । जैसे-देव तथा नरकके जीव उनका जीवित उपग्रह मरण उपग्रहद्वारा पुद्गल किस प्रकारसे उपकार कर सकते हैं ? । अब इसका उत्तर कहते हैं । जिनकी आयुष्का अपवर्तन नहीं होता उनकाभी जीवित उपग्रह तथा मरण उपग्रहरूप पुद्गलोंका उपकार है । यदि कहो कि कैसे ? तो कहते हैं। कर्मोंकी स्थिति और क्षयसे । अर्थात् कर्मोकी स्थिति जीवित उपग्रहरूप उपकार होता है । और कर्मोके क्षयसे मरणोपग्रहरूप उपकार होता है ।
और कर्म जो है वह तो पौद्गलिक है, अर्थात् पुद्गलसेही कर्म उत्पन्न होते हैं । तीन प्रकारका जो आहार है वह सेबकाही उपकार करता है । इसका क्या कारण है ? । उत्तर-क्यों कि शरीरकी स्थिति, वृद्धि, तथा बल, तेज आदिकी बढ़ानेकी प्रीतिसेही आहारका सेवन होता है ॥ २० ॥ ___ अत्राह । गृह्णीमस्तावद्धर्माधर्माकाशपुद्गला जीवद्रव्याणामुपकुर्वन्तीति । अथ जीवानां क उपकार इति । अत्रोच्यते
- अब कहते हैं कि इस बातको हम मानते हैं कि धर्म, अधर्म, आकाश तथा पुद्गल द्रव्य, जीवद्रव्यका उपकार करते हैं । परन्तु जीवोंका द्रव्यके ऊपर क्या उपकार है ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र है
परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१॥ सूत्रार्थ-जीवोंका परस्पर उपकार है। भाष्यम्-परस्परस्य हिताहितोपदेशाभ्यामुपग्रहो जीवानामिति ।
विशेषव्याख्या-जीव परस्पर आपसमें एक दूसरेका हित तथा अहितके उपदेशद्वारा उपकार करते हैं । अर्थात् गुरु कर्तव्याकर्तव्यका उपदेश देकर शिष्योंका उपकार करता है और शिष्य गुरुकी सेवा शुश्रूषा आदिद्वारा उसका उपकार करता है । ऐसेही खामी आदि निज-आश्रितोंका पालन पोषण आदिसे उपकार करते हैं, और आश्रित आदि उनकी आज्ञा पालन आदिसे उनका उपकार करते हैं ॥ २१ ॥ अत्राह । अथ कालस्योपकारः क इति । अत्रोच्यते
अब यहां कहते हैं कि कालका क्या उपकार है ? । इसके उत्तरमें अग्रिम सूत्र कहते हैं
वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२॥ १ ओजस् तेजः (पराक्रमादिकी वृद्धिका हेतु) तथा लोमप्रक्षेपादि और कवल यह तीनों प्रकारका आहार है। २ यहां 'सर्वेषाम्' इससे संसारी जीवोंका ग्रहण है, क्योंकि अधिक वेही हैं। ३ यहांपर वर्तना,
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