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१२८ ___रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
सूत्रार्थ-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार हैं । भाष्यम्-तद्यथा-सर्वभावानां वर्तना कालाश्रया वृत्तिः । वर्तना उत्पत्तिः स्थितिः प्रथमसमयाश्रया इत्यर्थः ॥ परिणामो द्विविधः । अनादिरादिमांश्च । तं परस्ताद्वक्ष्यामः । क्रिया गतिः । सा त्रिविधा । प्रयोगगतिर्विश्रसागतिमिश्रिकेति ॥ परत्वापरत्वे त्रिविधे प्रशंसाकृते क्षेत्रकृते कालकृते इति । तत्र प्रशंसाकृते परो धर्मः परं ज्ञानं अपरो धर्म अपरमज्ञानभिति । क्षेत्रकृते एकदिक्कालावस्थितयोर्विप्रकृष्टः परो भवति सन्निकृष्टोऽपरः । कालकृते द्विरष्टवर्षाद्वर्षशतिकः परो भवति वर्षशतिकाहिरष्टवर्षोऽपरो भवति ॥ तदेवं प्रशंसाक्षेत्रकृते परत्वापरत्वे वर्जयित्वा वर्तनादीनि कालकृतानि कालस्योपकार इति ।
विशेषव्याख्या-वर्तना आदि कालके उपकार हैं । जैसे-सब पदार्थोंकी वर्तना जो है वह कालके आश्रित वृत्ति है । वर्तना अर्थात् संपूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति, तथा स्थिति अर्थात् प्रथम समयके आश्रयीभूत जो उत्पत्ति स्थिति है वह वर्तना है । परिणाम दो प्रकारका है, एक अनादि परिणाम और दूसरा आदिमान् परिणाम । उस द्विविध परिणामको हम आगे कहेंगे (अ. ५ सू. ४२)। क्रिया अर्थात् गतिरूप क्रिया यहभी कालकाही उपकार है । क्रिया तीन प्रकारकी है । प्रथम प्रयोगगति, द्वितीय विश्रसागति, और तृतीय मिश्रिका वा मिश्रका । (उनमें प्रयोगगति पुरुषप्रयत्नजन्य, विश्रसागति स्वयं परिपाकसे जन्य और मिश्रिका उभयजन्य है) । परत्व अपरत्वभी तीन प्रकारके हैं । जैसे-प्रशंसाकृत । क्षेत्र (देश)कृत और कालकृत । उनमें प्रशंसाकृत जैसे-धर्म पर है, ज्ञान पर है, तथा अधर्म अपर है, अज्ञान अपर है । क्षेत्रकृत जैसे-एक देश कालमें स्थित दो पदार्थों के विषयमें जो दूर है वह तो पर है, और जो समीप है वह अपर है । कालकृत जैसे-शोलह वर्षवालेकी अपेक्षा शत (सौ) वर्षवाला पर है, और शतवर्षकी अपेक्षासे शोलह वर्षवाला अपर है । इस प्रकारसे प्रशंसा तथा क्षेत्रकृत परत्व अपरत्वको छोड़कर वर्तना आदि सब कालकृत है । अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया और कालिक परत्वापरत्व कालके उपकार हैं ॥ २२ ॥
अत्राह । उक्तं भवता शरीरादीनि पुद्गलानामुपकार इति । पुद्गलानिति च तत्रान्तरीया जीवान्परिभाषन्ते । स्पर्शादिरहिताश्चान्ये । तत्कथमेतदिति । अत्रोच्यते । एतदादिविप्रतिपत्तिप्रतिषेधार्थ विशेषवचनविवक्षया चेदमुच्यते ॥
अब यहांपर कहते हैं कि आपने शरीर आदि पुद्गलोंके उपकार कहे । और पुद्गलोंको अन्य तन्त्रवाले (बौद्ध) जीव कहते हैं । और दूसरे कहते हैं कि पुद्गल स्पर्श रस आदिसे रहित हैं । सो यह कैसे हो सकता है ? अर्थात् ये स्पर्श आदिरहित होनेसे जीव हैं,
परिणाम और क्रिया इन तीनों पदोंका विरोध न होनेसे समास करके पढ़ना चाहिये । कोई असमस्तही पढ़ते हैं । सापेक्ष होनेसे परत्वापरत्वका तो समास हैही।
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