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________________ १२२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् • विशेषव्याख्या-धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य अरूपी हैं और निष्क्रिय भी हैं; अर्थात् इनमें कोई क्रिया नहीं है। और पुद्गल तथा जीव तो क्रियावान् पदार्थ (द्रव्य) हैं। यहां क्रियासे गतिकर्मका तात्पर्य है । अर्थात् गतिकर्मको क्रिया कहते हैं। ___ अत्राह । उक्तं भवता प्रदेशावयवबहुत्वं कायसंज्ञमिति । तस्मात्क एषां धर्मादीनां प्रदेशावयवनियम इति । अत्रोच्यते । सर्वेषां प्रदेशाः सन्त्यन्यत्र परमाणोः । अवयवास्तु स्कन्धानामेव । वक्ष्यते "ह्मणवः स्कन्धाश्च" "संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते" इति ।। अब यहांपर कहते हैं कि आपने प्रथम यह कहा है कि प्रदेश तथा अवयोंका बहुत्व जो है वही कायसंज्ञक है (अ. ५ सू. १) । अर्थात् जिसके अधिक प्रदेश तथा अवयव हों वह पदार्थ कायवान् वा अस्तिकाय शब्दसे कहा जाता है। जैसे-जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय इत्यादि । सो धर्म अधर्म आदिके प्रदेश तथा अवयवोंका क्या नियम है ? अब इसका उत्तर कहते हैं। कि-प्रेदेश तो परमाणुको छोड़के सब द्रव्योंके हैं. और अवयव तो केवल स्कन्धोंहीके हैं । ऐसा आगे कहेंगेभी । अणु और स्कन्ध “ए दो पुद्गलोंके भेद हैं" ये संघातसे, भेदसे तथा संघात-भेदसे उत्पन्न होते हैं ॥ ६ ॥ तत्रतहां असङ्ख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ॥७॥ सूत्रार्थ-धर्म तथा अधर्मके असङ्खयेय प्रदेश हैं। भाष्यम्-प्रदेशो नामापेक्षिकः सर्वसूक्ष्मस्तु परमाणोरवगाह इति ॥ विशेषव्याख्या–प्रदेश पदार्थ सापेक्ष होता है; और परमाणुका अवगाह सर्वसूक्ष्म है ॥ ७ ॥ जीवस्य च ॥८॥ भाष्यम्-एकजीवस्य वासङ्खयेयाः प्रदेशा भवन्तीति । विशेषव्याख्या-जीवद्रव्यकेभी अर्थात् एक जीवकेभी असंख्येय प्रदेश होते हैं॥ ८ ॥ आकाशस्यानन्ताः॥९॥ भाष्यम्-लोकालोकाकाशस्यानन्ताः प्रदेशाः । लोकाकाशस्य तु धर्माधमैकजीवैस्तुल्याः॥ विशेषव्याख्या-लोकालोकाकाशके अनन्त प्रदेश हैं । और लोकाकाशके धर्म, अधर्म तथा एक जीवके तुल्य अर्थात् असंख्यात प्रदेश हैं ॥ ९ ॥ १ इस सूत्रकी व्याख्या पाश्चात्य विद्वान् सिद्धान्तहृदय इस पदमें पुस्तकका नाम कहके भ्रममें पड़ गये हैं, किन्तु-"तथाचावधृतसिद्धान्तहृदयेन विशेषावश्यककारेण नमस्कारनियुक्तौ शब्दानित्यत्वप्रतिपादनेच्छाभावोऽपि" इस वाक्यमें "अवधृतसिद्धान्तहृदय" जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणका विशेषण है । अर्थात् वे सिद्धान्तवादी हैं । २ जो कि वस्तुके व्यतिरेक और भिन्नतासे कदाचित्भी उपलब्ध नहीं होते वे प्रदेश हैं । ३ जो कि विशकलित परिकलित अर्थात् स्पष्ट मूर्तिमान् हैं, बुद्धिपथमें जिनकी मूर्ति स्पष्ट है, वे अवयव हैं. और वे अवयव, धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और अणु इनमें नहीं होते तथा येही प्रदेश और अवयवोंका भेद है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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