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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
५७ वैक्रियमिति । विक्रिया विकारो विकृतिर्विकरणमित्यनन्तरम् । विविधं क्रियते । एक भूत्वानेकं भवति । अनेक भूत्वा एकं भवति । अणु भूत्वा महद्भवति । महच्च भूत्वाणु भवति । एकाकृति भूत्वानेकाकृति भवति । अनेकाकृति भूत्वा एकाकृति भवति । दृश्यं भूत्वादृश्यं भवति । अदृश्यं भूत्वा दृश्यं भवति । भूमिचरं भूत्वा खेचरं भवति । खेचरं भूत्वा भूमिचरं भवति । प्रतिघाति भूत्वाप्रतिघाति भवति । अप्रतिघाति भूत्वा प्रतिघाति भवति । युगपञ्चैतान भावाननुभवति । नैवं शेषाणीति । विक्रियायां भवति विक्रियायां जायते विक्रियायां निवर्त्यते विक्रियैव वा वैक्रियम् ॥ __ वैक्रियक- विक्रिया, विकार, विकृति तथा विकरण ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। जो विविध प्रकारसे किया जावे वह वैक्रियक है। जैसे; एक होके अनेक हो, अनेक होके एक हो । अणु (अतिसूक्ष्म) होके महान् हो, महान होके अणु हो । एक आकारका होकर अनेकाकार हो, अनेकाकारका होकर एकाकार हो । दृश्य होकर अदृश्य हो, अदृश्य होकर दृश्यरूप हो । थलचर (पृथ्वीपर चलनेवाला) होकर नभचर (आकाशगामी) हो, नभचर होकर थलचर हो । प्रतिघाति (दूसरेसे रुकनेवाला वा दूसरेको रोकनेवाला) होकर अप्रतिघाति हो, तथा अप्रतिघाति होकर प्रतिघाति हो । एक कालमें जो पूर्वोक्त एक, अनेक, अणु तथा महदादि भावोंको अनुभवन करै वह वैक्रियक है । इस प्रकारके शेष शरीर नहीं है, अर्थात् वे विविध और परस्पर विरोधी आकारोंको नहीं धारण कर सक्ते । जो विक्रिया अर्थात् विकारमें हो, जो विक्रियामें उत्पन्न हो, तथा जो विक्रियामें सिद्ध किया जावे, वह वैक्रियक है । अथवा विक्रिया अर्थात् विकार ही वैक्रियक है। आहारकम् । आहियत इति आहार्यम् । आहारकमन्तर्मुहूर्तस्थिति । नैवं शेषाणि ॥
आहारक—आहारक शरीर वह है, जो कि अल्पकालकेलिये प्राप्त किया जावे वा लाया जावे । इसकी व्युत्पत्ति यह है:,-"आन्हियते इति आहार्यम्' अर्थात् आहार्य किंचित् कालकेलिये जो लभ्य वा स्थापनीय, वही आहारक । उस आहारककी स्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त है । अन्य शरीर ऐसी अल्प स्थितिवाले नहीं है । तेजसो विकारस्तैजसं तेजोमयं तेजःस्वतत्त्वं शापानुग्रहप्रयोजनम् । नैवं शेषाणि ।
तैजस—तेजका जो विकार है वह तैजस शरीर है, अथवा जो तेजोमय तेजःपूर्ण वा तेजोरूप ही है वह तैजस है । शाप अनुग्रहरूप प्रयोजन तैजसका वास्तविक निजतत्त्व है । और अन्य शरीरोंमें यह शाप तथा अनुग्रह करनेका सामर्थ्य नहीं है, इस हेतुसे तैजस उनसे भिन्न है। कर्मणो विकारः कर्मात्मकं कर्ममयमिति कार्मणम् । नैवं शेषाणि ॥ कार्मण-जो कर्मका विकार है, कर्मस्वरूप है, वा कर्ममय है; वह कार्मण शरीर
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