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________________ ५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है । इस प्रकार अन्य शरीर नहीं है, अर्थात् कर्मके विकारादि नहीं है, इस कारण अन्यसे इसमें विशेषता है। एभ्य एव चार्थविशेषेभ्यः शरीराणां नानात्वं सिद्धम् । किं चान्यत् । कारणतो विषयतः स्वामितः प्रयोजनतः प्रमाणतः प्रदेशसङ्ख्यातोऽवगाहनतः स्थितितोऽल्पबहुत्वत इत्येतेभ्यश्च नवभ्यो विशेषेभ्यः शरीराणां नानात्वं सिद्धमिति । इन पूर्वोक्त विशेष अर्थोंसे शरीरोंका नानात्व अर्थात् अनेकविधत्व वा अनेकप्रकारत्व सिद्ध हो गया । किंच और यह भी है कि कारणसे, विषयसे, स्वामीसे, प्रयोजनसे, प्रमाणसे, प्रदेशकी संख्याओंसे, अवगाहनसे, स्थितिसे तथा अल्पबहुत्वसे भी शरीरोंका नानात्व सिद्ध हुआ । तात्पर्य यह है कि कारण, विषय और स्वामी नव विशेष अर्थ हैं, जिनसे शरीरोंका नानात्व अनेकत्व सिद्ध होता है । १ इस रीतिसे औदारिक आदि शरीरोंको अन्वर्थसंज्ञक कहके उदार ही औदारिक है, उत्कटार उदार है, इत्यादि अन्वर्थ नाना संज्ञाओंको प्रतिपादन करके अब लक्षण भेदसे एक ही प्रयत्नसे साध्य शरीरोंके नानात्वका उपदेश करते हैं । इन्हीं पूर्वोक्त अर्थविशेषोंसे शरीरोंका नानास अनेक प्रकारत्व इसका तात्पर्य यह है, कि उदार विक्रिया तथा आहार्य आदि जो विशेष अर्थ हैं, उनके लक्षणों तथा स्वरूपोंके भेदसे शरीरोंका नानात्व सिद्ध हुआ। २ किंचान्यत् इसका तात्पर्य यह हैं कि केवल अन्वर्थकी संख्याओंसे ही शरीरोंका भेद नहीं है, किन्तु संख्या आदिसे अन्य भी अतिरिक्त हेतुओंसे भी विशेष है । वे हेतु कारण आदि हैं; उनमें प्रथम कारण है । जैसे औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलोंसे रचित मूर्ति है, और वैक्रियक आदि इसप्रकार स्थूल पुद्गलरूप कारणसे नहीं बने हैं, इसलिये औदारिकमें कारणकृत अन्य शरीरोंसे विशेषता है । क्योंकि “पर २ सूक्ष्म है" ऐसा वचन है । तथा विषयकृत भेद विद्याधरोंके औदारिक शरीरोंकेप्रति नन्दीश्वर द्वीपपर्यन्त औदारिक शरीरका विषय है, और जङ्घाचारण ( ऋद्धि विशेष )के प्रति रुचकवर पर्वतपर्यन्त तिर्यग् लोकमें विषय है, ऊर्ध्व पाण्डुक वनपर्यन्त है । वैक्रियक शरीरका विषय असंखेय द्वीपसमुद्र पर्यन्त है । आहारकका विषय महाविदेह क्षेत्रपर्यन्त है । और तैजस तथा कार्मणका विषय सम्पूर्ण लोक पर्यन्त है। स्वामीके द्वारा भी विशेष है । जैसे औदारिक शरीरके स्वामी तो तिर्यग्योनिवाले जीव तथा मनुष्य हैं । वैक्रियकके देव नारक तथा कोई २ तिर्यक् और मनुष्य भी हैं । आहारकके स्वामी चौदहपूर्वके धारक संयत मनुष्य हैं। और तैजस कार्मणके समस्त संसारी जीव स्वामी हैं । प्रयोजनकृत भी भेद हैं। जैसे आहारक शरीरके धर्म, अधर्म, सुख, दुःख और केवलज्ञानकी प्राप्ति आदि प्रयोजन हैं । वैक्रियकके स्थूल, सूक्ष्म, एकत्व, अनेकत्व और आकाश, तथा भूमि जलादिमें गमन आदि लक्षणरूप अनेक ऐश्वर्यकी प्राप्ति प्रयोजन है । और आहारके सूक्ष्म, व्यवहित देश वा कालके व्यवधानमें रहनेवाले पदार्थ और अति गूढ अर्थोंका ज्ञान प्रयोजन है । तैजसका आहारकका परिपाक तथा शाप देने और अनुग्रह करनेका सामर्थ्य प्रयोजन है । और कार्मणका जन्मान्तरमें गति परिणाम प्रयोजन है । प्रमाणकृत विशेष है । जैसे कुछ अधिक एक सहस्र योजन औदारिकका प्रमाण है। वैक्रियक शरीरका एक लक्ष योजन प्रमाण है । व रनि (बद्धमुष्टिहस्त) मात्र आहारकका प्रमाण है । तथा लोकके विस्तार प्रमाण तैजस और कार्माण हैं । तथा प्रदेशसंख्याकृत भी भेद हैं, जैसे तैजस शरीरके पूर्व औदारिक आदिसे पर २ प्रदेशकी अपेक्षा उत्तर २ के असंख्यात गुणें प्रदेश हैं, यह विषय पूर्व प्रसङ्गमें कहा है । और अवगाहनाकृत भी भेद है, जैसे कुछ अधिक एक सहस्र योजन पर्यन्त असंख्येय प्रदेशोंमें औदारिक शरीरका भलीभांति अवगाहन (प्रवेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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