SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अत्राह । आसु चतसृषु संसारगतिषु को लिङ्गनियम इति । अत्रोच्यते । जीवस्यौदयिकेषु भावेषु व्याख्यायमानेषूक्तम् । त्रिविधमेव लिङ्गं स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्गं नपुसकलिङ्गमिति ।। तथा चारित्रमोहे नोकषायवेदनीये त्रिविध एव वेदो वक्ष्यते । स्त्रीवेदः पुवेदो नपुंसकवेद इति ॥ तस्मात्रिविधमेव लिङ्गमिति ॥ तत्र___ अब यहां कहते हैं कि संसारकी मनुष्यादि चार गतियोंमें लिङ्गका क्या नियम है ? इसका उत्तर कहते हैं । औदायिक आदि जीवोंके भावोंकी व्याख्यामें कहा है कि स्त्रीलिङ्ग पुल्लिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग भेदसे लिंगके तीन ही भेद हैं। और चारित्रमोहनीय नो कषायोंके विषयमें भी तीन ही प्रकारका वेद कहेंगे । जैसे स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंकवेद । इन कारणोंसे लिंग तीन ही प्रकार है । उसमें--- नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ सूत्रार्थ:-नारकी जीव ओर संमूर्छन जीव नपुंसक ही होते हैं । ___ भाष्यम् -नारकाश्च सर्वे सम्मूर्छिनश्च नपुंसकान्येव भवन्ति । न स्त्रियो न पुमांसः । तेषां हि चारित्रमोहनीयनोकषायवेदनीयाश्रयेषु त्रिषु वेदेषु नपुंसकवेदनीयमेवैकमशुभगतिनामापेक्षं पूर्वबद्धनिकाचितमुदयप्राप्तं भवति नेतरे इति ॥ विशेषव्याख्या-नारक गतिवाले सब जीव और संमूर्छन जन्मवाले नपुंसक ही होते वा पैठ ) है । उन प्रदेशोंसे बहुत अधिक असंखेय प्रदेशमें एक लक्ष योजनपर्यन्त वैक्रियकका अवगाहन है । और औदारिक तथा वैक्रियकसे बहुत न्यून एक हस्तमात्र ही आहारकका अवगाहन है । तथा तैजस और कार्माण लोकान्तमें विस्तृत आकाश श्रेणिपर्यन्त अवगाहन है । तथा स्थितिकृत भी विशेष है। जैसे औदारिककी जघन्य अर्थात् सबसे न्यूनस्थिति अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त है, और उत्कर्ष अर्थात् अधिकसे अधिक ३३ सागर पर्यन्त स्थिति है । तथा अभव्यके सम्बन्धसे तैजस और कार्माणकी प्रवाहके अनुरोधसे अनादि अनन्तकाल स्थिति है । और भव्यके सम्बन्धसे अनादि सान्त है । तथा अल्पबहुत्वकृत भी भेद है । जैसे यदि होनेको संभव हो तो आहारक सबसे न्यून होता है, और कदाचित् नहीं भी संभव होता। इसका कारण क्या है? उसका जघन्य अन्तर अर्थात् विरहकाल एक समय है, और यदि संभव हो तो अधिकसे अधिक छह मास है, इसकारण एकसे आदि लेकर उत्कर्षसे नव सहस्र समय पर्यन्त एक कालमें आहारक शरीरवालोंका उसका अन्तर है। तथा आहारक शरीरसे वैक्रियक शरीर देव नारकियोंके असंखेय होनेसे असंख्येय उत्सर्पिणीके समयोंकी राशिके समान संख्यायुक्त असंख्येय गुण होते हैं । तथा वैक्रियक शरीरकी अपेक्षासे औदारिक शरीर असंखेय गुण होते हैं, और वे तिर्यक् शरीर और मनुष्योंके असंख्येय होनेसे असंख्येय उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीके समयोंकी राशिके समान संख्यावाले असंख्यात होते हैं, कदाचित् ऐसा कहो कि तिर्यक् तो अनन्त हैं, तो अनन्तता होनेपर असंख्येय कैसे हो सक्ते हैं ? उत्तर कहते हैं कि प्रत्येक शरीर तो असंखेय है और साधारण शरीर अनन्त हैं, और उनके अनन्तोंका एक शरीर है; इस हेतुसे असंख्येय हैं । अनन्तोंका प्रत्येक शरीर नहीं है, इस कारण असंख्येय कथन योग्य ही है। औदारिक शरीरोंकी अपेक्षा तैजस कार्मण अनन्त है, क्योंकि वे सब संसारी जीवोंमें प्रत्येकके होते हैं, इस हेतुसे अनन्त हैं । ऐसा नहीं है कि बहुत जीवोंका एक तैजस वा कार्मण होता है । इस रीतिसे कारण आदि नव विशेषोंसे शरीरोंका नानात्व घटपटादि पदार्थों के समान निश्चय करना चाहिये । www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy