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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १८५ संस्थापनं रचना घटनमित्यर्थः । त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तनक्रियापरिसमाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । प्राणापानक्रियायोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिवर्तनक्रियापरिसमाप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः । भाषायोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिवर्तनक्रियापरिसमाप्ति षापर्याप्तिः । मनस्त्वयोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिर्वर्तनक्रियासमाप्तिर्मनःपर्याप्तिरित्येके । आसां युगपदारब्धानामपि क्रमेण समाप्तिरुत्तरोत्तरसूक्ष्मत्वात् सूत्रदादिकर्तनघटनवत् । यथासङ्खयं च निदर्शनानि गृहदलिकग्रहणस्तम्भस्थूणाद्वारप्रवेशनिर्गमस्थानशयनादिक्रियानिर्वर्तनानीति । पर्याप्तिनिर्वर्तकं पर्याप्तिनाम अपर्याप्तिनिवर्तकमपर्याप्तिनाम अपर्याप्तिनाम तत्परिणामयोग्यदलिकद्रव्यमात्मनानोपात्तमित्यर्थः ॥ स्थिरत्वनिवर्तकं स्थिरनाम । विपरीतमस्थिरनाम । आदेयभावनिर्वतकमादेयनाम । विपरीतमनादेयनाम । यशोनिर्वर्तकं यशोनाम । विपरीतमयशोनाम । तीर्थकरत्वनिर्वर्तकं तीर्थकरनाम । तांस्तान्भावान्नामयतीति नाम । एवं सोत्तरभेदो नामकर्मभेदोऽनेकविधः प्रत्येतव्यः॥ पृथक् २ शरीरोंको जो उत्पन्न करनेवाला सामर्थ्यविशेष है, वह प्रत्येक शरीरनाम है । अनेक जीव साधारण शरीरका जो साधक है वह साधारणशरीरनाम है । त्रस ( भय उद्वेगआदिसहित जीव ) भावका जो साधक है वह त्रसनाम है । स्थावर भावका जो साधक वा उत्पादक है उसको स्थावरनाम कहते हैं । सौभाग्यका जो जनक है उसको सुभगनाम कहते हैं । दुर्भाग्यका जो सिद्ध करनेवाला है वह दुर्भगनाम है। उत्तम स्वरका जो निर्वर्तक ( साधक ) है वह सुस्वरनाम है । दुष्ट ( खराब ) स्वर (आवाज) का जो साधक है वह दुःस्वरनाम है । शुभ भाव, शोभा तथा माङ्गल्यका जो साधक है वह शुभनाम है । और उससे विपरीत अर्थात् अशुभ भाव, अशोभा तथा अमङ्गलका जो साधक है वह अशुभनाम है । सूक्ष्म शरीरका निर्वर्तक (जनक) सूक्ष्मनाम है । उससे विरुद्ध बादर (स्थूल ) शरीरका जनक है वह बादरनाम है। पर्याप्ति पांच प्रकारकी है। जैसे-आहारपर्याप्ति (पूर्णता), शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति. प्राणापानपर्याप्ति, तथा भाषापर्याप्ति । यहां पर्याप्ति शब्दका अर्थ आत्माकी क्रियाकी परिसमाप्ति अर्थात् पूर्णता है । इनमें शरीर, इन्द्रिय, वाग्, मन, तथा प्राण अपानके योग्य दलके जो द्रव्य हैं, अर्थात् जिन द्रव्योंसे शरीरआदि रचनाकी योग्यता होती है उन द्रव्योंके आहरण (आनयन ) क्रियाकी जो समाप्ति है वह आहारपर्याप्ति है । और ग्रहण किये हुए द्रव्यकी शरीररूपसे संस्थापनक्रिया होती है उस क्रियाकी परिसमाप्ति, शरीरपर्याप्ति संस्थापनका अर्थ है । रचना अथवा घटना, अर्थात् शरीररूपसे रचना । त्वग ( स्पर्शन ) आदि इन्द्रियों के निर्माण (रचना) रूप क्रियाकी परिसमाप्ति जो है वह इन्द्रियपर्याप्ति है। प्राण अपान (श्वास उच्छास) क्रियाके योग्य द्रव्योंका ग्रहण तथा त्याग जो है उस ग्रहण तथा त्याग शक्तिको सिद्ध करनेवाली जो क्रिया है उसकी परिसमाप्ति जो है वह प्राणापानपर्याप्ति है । भाषाके योग्य जो द्रव्य है उस द्रव्यके ग्रहण Jain Education Internaval For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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