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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा
सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ सूत्रार्थः-उननरकोंमें जीवोंकी परा अर्थात् उत्कृष्टस्थिति एक, तीन, सात, दश, सत्रह, बावीस और तेतीस सागरोपमा होती है ।
भाष्यम्-तेषु नरकेषु नारकाणां पराः स्थितयो भवन्ति । तद्यथा। रत्नप्रभायामेकं सागरोपमम् । एवं त्रिसागरोपमा सप्तसागरोपमा दशसागरोपमा सप्तदशसागरोपमा द्वाविंशतिसागरोपमा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा । जघन्या तु पुरस्ताद्वक्ष्यते । नारकाणां च द्वितीयादिषु। दशवर्षसहस्राणि प्रथमायामिति ।
विशेषव्याख्या-उन पूर्वोक्त रत्नप्रभादि नरकोंमें जीवोंकी सबसे अधिक स्थिति क्रमसे एक, तीन, आदि सागरोपमा होती है । यथा,:-रत्नप्रभामें एक सागरोपमा, शर्कराप्रभामें तीन सागरोपमा, वालुकाप्रभामें सात सागरोपमा, पंकप्रभामेंदश सागरोपमा, धूमप्रभाग सत्रह सागरोपमा, तमःप्रभामें बावीस सागरोपमा, और महातमःप्रभामें तेवीस सागरोपमा परा अर्थात् सबसे उत्कृष्ट स्थिति होती है । यह वर्णन परास्थितिका है, और जघन्या स्थितिका वर्णन आगे करेंगे । यथा “नारकाणां च द्वितीयादिषु" "दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम्" अर्थात् "नरकके जीवोंकी द्वितायादिभूमियोंमें भी इसप्रकार जघन्यस्थिति है" तथा "प्रथम भूमिमें दशहजार वर्षकी स्थिति है" ( अध्याय ४, सूत्र ४३,४४) । __ तत्रास्रवैयक्तैिनारकसंवर्तनीयैः कर्मभिरसंज्ञिनः प्रथमायामुत्पद्यन्ते । सरीसृपा द्वयोरादितः प्रथमद्वितीययोः । एवं पक्षिणस्तिसृषु । सिंहाश्चतसृषु । उरगाः पञ्चसु । स्त्रियः षट्सु । मत्स्यमनुष्याः सप्तस्विति । न तु देवा नारका वा नरकेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । न हि तेषां बह्वारम्भपरिग्रहादयो नरकगतिनिर्वर्तका हेतवः सन्ति । नाप्युद्वर्त्य नारका देवेषूत्पद्यन्ते । न ह्येषां सरागसंयमादयो देवगतिनिर्वर्तका हेतवः सन्ति । उद्वतितास्तु तिर्यग्योनौ मनुष्येषु वोत्पद्यन्ते । मानुषत्वं प्राप्य केचित्तीर्थकरत्वमपि प्राप्नुयुरादितस्तिसृभ्यः निवार्ण चतसृभ्यः संयम पञ्चभ्यः संयमासंयम षड्भ्यः सम्यग्दर्शनं सप्तभ्योऽपीति ॥
उनमें आस्रवोंकेद्वारा नरकके जीवोंके संवर्तन ( व्यवहार ) के योग्य शास्त्रोक्त कर्मोंसे असंज्ञी जीव प्रथम भूमिमें उत्पन्न होते हैं। और सरीसृप (सर्प विशेष) प्रथम तथा द्वितीय भूमिमें उत्पन्न होते हैं। और पक्षी तीनों भूमियोमें उत्पन्न होते हैं। सिंह चारों भूमियोंमें होते हैं । विषधर सर्प पांचोंमें उत्पन्न होते हैं । स्त्रियां छहों भूमियोमें उत्पन्न होती हैं । और मनुष्य तथा मत्स्य सातों भूमियोंमें उत्पन्न होते हैं । किन्तु देव और नारकजीव
१ नारकाणां च द्वितीयादिषु, इस सूत्रके पहिले 'परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा' कहा है । जिस का अर्थ यह है कि पूर्व २ खगोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है वह महेन्द्र कल्पके परे जघन्य स्थिति है।सो इस सूत्र की अनुवृति 'च' पदकेद्वारा ली गई है, अर्थात् जिस प्रकार महेन्द्रकल्पके परे स्थितिका क्रम है, उसी प्रकार द्वितीयादि भूमियोंमें भी पूर्व २ की जो उत्कृष्ट स्थिति है, वह पर २ की जघन्य स्थिति है । Jain Education International
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