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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ख्यातसंयत ( यथाख्यातसंयम चारित्रवाला) सिद्ध होता है । परम्परपश्चात्कृतिकके व्यञ्जित तथा अव्यञ्जित ये दो भेद होते हैं। उसमें अव्यञ्जितमें त्रिचारित्रपश्चात्कृत, चतुश्चारित्रपश्चात्कृत तथा पञ्चचारित्रपश्चात्कृत होते हैं । और व्यञ्जितमें सामायिक सूक्ष्म सांपरायिक तथा यथाख्यातपश्चात्कृत सिद्ध होते हैं, तथा छेदोपस्थाप्य सूक्ष्म सम्पराय तथा यथाख्यातपश्चात्कृत सिद्ध, सामायिक छेदोपस्थाप्य सूक्ष्म सम्पराय तथा यथाख्यात पश्चास्कृत सिद्ध, ऐसेही छेदोपस्थाप्य परिहारविशुद्धि सूक्ष्म सम्पराय तथा यथाख्यात पश्चात्कृत सिद्ध, और इसी रीतिसे सामायिक, छेदोपस्थाप्य, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय तथा यथाख्यात पश्चात्कृत सिद्ध होते हैं । ( इस प्रकार क्रमसे त्रिचारित्रपश्चात्कृत, चतुश्चारित्रपश्चात्कृत तथा पञ्चचारित्रपश्चात्कृत व्यञ्जित भेदमें दर्शाये गये।) प्रत्येकबुद्धबोधितः । अस्य व्याख्याविकल्पश्चतुर्विधः । तद्यथा । अस्ति स्वयंबुद्धसिद्धः। स द्विविधः अहंश्च तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धसिद्धश्च । बुद्धबोधितसिद्धाः त्रिचतुर्थो विकल्पः परबोधकसिद्धाः स्वेष्टकारिसिद्धाः ॥ प्रत्येक-बुद्ध-बोधित (के विषयमें )। इसका अर्थात् प्रत्येक-बुद्ध-बोधितकी व्याख्याका विकल्प ( भेद ) चार प्रकारका है। जैसे स्वयंसिद्ध बुद्ध प्रसिद्ध प्रथम भेद है । उसके ( अर्थात् स्वयंबुद्ध सिद्धके ) दो भेद हैं, एक तो अर्हन् तीर्थकर भगवान् और द्वितीय प्रत्येकबुद्धसिद्ध) द्वितीय बुद्धबोधितसिद्ध (बुद्धसे बोधन किये हुए सिद्ध) और तृतीय तथा चतुर्थ भेद परबोधकसिद्ध (दूसरोंको बोध करनेवाले सिद्ध ) और स्वेष्टकारिसिद्ध, अर्थात् अपना इष्ट सिद्ध करनेवाले सिद्ध ये चार भेद सिद्धोंके हैं । ज्ञानम् । अत्र प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य केवली सिद्ध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयो द्विविधः अनन्तरपश्चात्कृतिकश्च परम्परपश्चात्कृतिकश्च अव्यञ्जिते च व्यञ्जिते च । अव्यञ्जिते द्वाभ्यां ज्ञानाभ्यां सिध्यति । त्रिभिश्चतुर्भिरिति । व्यञ्जिते द्वाभ्यां मतिश्रुताभ्याम् । त्रिभिर्मतिश्रुतावधिभिर्मतिश्रुतमनःपर्यायैर्वा । चतुर्भिर्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायैरिति ॥ ज्ञान ( के विषयमें ) । इस विषयमें प्रत्युत्पन्न भाव ज्ञापनीयके अनुरोधसे केवली ( केवलज्ञान-सहित ) सिद्ध होता है। और पूर्वभाव-ज्ञापनीय दो प्रकारका है । अनन्तरपश्चात्कृतिक, तथा परम्परपश्चात्कृतिक । इसमें भी अव्यञ्जित तथा व्यञ्जित ये दो भेद समझने । अव्यञ्जितमें तो दो ज्ञानोंसे सिद्ध होता है। तीन और चारसे भी (सिद्ध होता है ) । व्यञ्जितमें दो से अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञानसे । तीनसे मति, श्रुत तथा अवधि ज्ञानसे, अथवा मति श्रुत और मनःपर्यायसे सिद्ध होता है । और चारसे मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्यायसे सिद्ध होता है। अवगाहना । कः कस्यां शरीरावगाहनायां वर्तमानः सिध्यति । अवगाहना द्विविधा उत्कृष्टा जघन्या च । उत्कृष्टा पञ्चधनुःशतानि धनुःपृथक्त्वेनाभ्यधिकानि । जघन्या सप्तरत्नयोऽ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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