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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २१ मति तथा श्रुतज्ञानका नानात्व ( भेद ) तो अङ्गीकार करते हैं, किन्तु श्रुतज्ञान द्विविध ( दो भेद ) अनेकविध, तथा द्वादशविध अर्थात् १२ भेद सहित है, इस विशेषता क्या कारण है, यह परस्पर भेद किसका किया है ? अब इसका उत्तर देते है कि वक्ताके भेदसे प्रथम दो भेद माने गये हैं, अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट ये भेद वक्ताओंके भिन्न २ होनेसे माने गये हैं । जो कि सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा परमऋषि स्वरूप भगवान् अर्हतोंने परमशुभ, तथा प्रवचन प्रतिष्ठापन फलदायक तीर्थकर नाम कर्मके प्रभावसे तादृश स्वभाव होनेके कारणसे कहा है; उसीको अतिशय अर्थात् साधारण जनोंसे विशेषता युक्त, और उत्तम तथा विशेषवाणी तथा बुद्धि ज्ञान आदि संपन्न भगवान् शिष्य गणधरोंने जो कुछ कहा है वह अङ्ग प्रविष्ट है । और गणधरोंके अनन्तर होनेवाले अत्यन्त विशुद्ध आगमोंके ज्ञाता तथा परमोत्तम वाक् बुद्धिआदिकी शक्तिसम्पन्न आचायॊने कालसंहनन तथा अल्पायु आदिके दोषोंसे अल्पशक्तिवाले शिष्योंके ऊपर अनुग्रहार्थ जो ग्रन्थ निर्माण किये हैं वे सब अङ्गबाह्य हैं । सर्वज्ञसे रचित होनेके कारण तथा ज्ञेयवस्तुके अनन्त होनेसे मतिज्ञानकी अपेक्षा श्रुतज्ञान् महान् विषयोंसे संयुक्त है । अतएव श्रुतज्ञानके महाविषय होनेके कारण उन २ जीवादि पदार्थोंका अधिकारकरके प्रकरणोंकी समाप्तिकी अपेक्षा संयुक्त अङ्ग तथा उपाङ्गोंका नानात्व अर्थात् अनेक भेदत्व है । और भी, सुखपूर्वक ग्रहण, धारण, तथा विज्ञानके निश्चय प्रयोगार्थ भी श्रुतज्ञानका नानात्व (अनेक भेदत्व) है और यदि ऐसा न हो अर्थात् प्रत्येक विषय निज २ प्रकरणमें निबद्ध न हो तो समुद्रके तरनेके सदृश उन २ पदार्थोंका ज्ञान दुःसाध्य हो जाय । और इस सुखपूर्वकग्रहणआदि रूप अङ्ग तथा उपाङ्गोंके भेदस्वरूप प्रयोजनसे पूर्वकालिकवस्तु, प्राप्तव्य जीवादि द्रव्य, तथा जीवादि द्वारा ज्ञेय विद्या आदि अध्ययन और उनके उद्देशोंका भी निरूपण हो गया, अर्थात् ज्ञेयकी सुगमताकेलिये ही जीवसे ज्ञेय जीवसम्बन्धी ज्ञान, तथा जीवसे बोध्य अचेतन पदार्थोंका ज्ञान, यह सब नाना भेद सहित श्रुतज्ञान द्वारा वर्णन किया गया है । अब यहांपर कहते हैं कि मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानकी तुल्यता "द्रव्येष्वसर्वप-येषु" ( तत्वार्थसूत्र, अध्याय १ सूत्र २७ ) में कहेंगे अर्थात् असर्वपायों ( कतिपय पर्यायों ) में संपूर्ण द्रव्योंमें मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका विषय निबन्ध है, तात्पर्य यह कि इस सूत्रद्वारा यह कहा गया है कि संपूर्ण द्रव्योंके कुछ पर्याय मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानके विषय हैं, इससे दोनोंकी एकता हो गई । अब उत्तर कहते हैं कि यह विषय प्रथम ही कह चुके हैं कि मतिज्ञान तो वर्तमानकालविषयक है, और श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक है, तथा मतिज्ञानसे अधिक विशुद्ध और महाविषययुक्त है अर्थात् मतिज्ञानसे तो केवल वर्तमानकालके ही पदार्थ जाने जाते हैं, और श्रुतज्ञानसे तीनों कालके पदार्थ जाने जाते हैं । और दूसरी बात यह भी है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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