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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । __५५ औदारिक शरीरको आचार्य कहते हैं, वह आद्य औदारिकशरीर गर्भ और सम्मूर्छनरूप जन्ममें उत्पन्न होता है ॥ ४६॥ वैक्रियमौपपातिकम् ॥ ४७॥ सूत्रार्थः—वैक्रियक शरीर उपपातरूप जन्ममें उत्पन्न होता है । भाष्यम्-वैक्रियशरीरमौपपातिकं भवति । नारकाणां देवानां चेति । विशेषव्याख्या-वैक्रियक शरीर उपपात जो जन्मका तीसरा प्रकार है, उसमें उत्पन्न होता है । और उपपातरूप जन्ममें वैक्रियक शरीर नारक जीव तथा देवोंका होता है । क्योंकि उपपात जन्म नारकी तथा देवोंका होता है, यह पूर्वमें कह चुके हैं ॥ ४७ ॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४८॥ सूत्रार्थः-और वैक्रियक शरीर लब्धि प्रत्यय भी है। भाष्यम्-लब्धिप्रत्ययं च वैक्रियशरीरं भवति । तिर्यग्योनीनां मनुष्याणां चेति । विशेषव्याख्या-वैक्रियक शरीर उपपात स्वरूप जन्मसे होता है, और वह वैक्रियक लब्धि प्रत्यय भी है अर्थात् उसके उत्पन्न होनेमें लब्धि कारण है । और वह लब्धि वैक्रियक, तिर्यग्योनिज तथा मनुष्योंको होती है ॥ ४८ ॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ॥ ४९॥ सूत्रार्थः–तथा आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और अव्याघाति होता है, और वह चतुर्दशपूर्वके धारियोंके ही होता है । भाष्यम्-शुभमिति शुभद्रव्योपचितं शुभपरिणामं चेत्यर्थः । विशुद्धमिति विशुद्धद्रव्योपचितमसावद्यं चेत्यर्थः । अव्याघातीति आहारकं शरीरं न व्याहन्ति न व्याहन्यते चेत्यर्थः । तचतुर्दशपूर्वधर एव कस्मिंश्चिदर्थे कृच्छेऽत्यन्तसूक्ष्मे सन्देहमापन्नो निश्चयाधिगमार्थे क्षेत्रान्तरितस्य भगवतोऽहंतः पादमूलमौदारिकेण शरीरेणाशक्यगमनं मत्वा लब्धिप्रत्ययमेवोत्पादयति दृष्ट्वा भगवन्तं छिन्नसंशयः पुनरागत्य व्युत्सृजत्यन्तर्मुहूर्तस्य ॥ विशेषव्याख्या-आहारक शरीर शुभ है, अर्थात् शुभ द्रव्यसे वृद्धिको प्राप्त होता है, शुभ द्रव्यका परिणाम है । तथा विशुद्ध है, विशुद्ध द्रव्यसे वृद्धिको प्राप्त होता है, अर्थात् दोष निन्दा आदिसे रहित है । और यह आहारक शरीर अव्याघाति है, अर्थात् न यह किसीका व्याघात करता है और न इसका कोई व्याघात कर सकता है । और यह आहारक चतुर्दशपूर्वधरोंमें ही होता है । जब कोई चतुर्दशपूर्वधर क्लिष्ट तथा सूक्ष्म विषयके सन्देहमें प्राप्त होता है, उस समय उस सूक्ष्म पदार्थके निश्चयकेलिये अन्यक्षेत्रमें निवास करनेवाले भगवत अर्हत्के चरणकमलोंके निकट औदारिक शरीरसे गमन अशक्य है, ऐसा मानकर लब्धिप्रत्यय शरीरको उत्पन्न करता है, अनन्तर भगवान्को देखकर सन्देहरहित होनेसे पुनः निज आश्रममें आकर अन्तर्मुहूर्तमें उस शरीरको त्याग देता है ॥ ४९ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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