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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् की सत्तामें कार्मण और औदारिक हो सक्ते हैं, अथवा कार्मण और वैक्रियक हो सक्ते हैं। तथा तीनकी योग्यतामें कार्मण, औदारिक, और वैक्रियक हो सक्ते हैं वा कार्मण, औदारिक और आहारक हो सक्ते हैं । और चारकी योग्यतामें कार्मण, तैजस, औदारिक और वैक्रियक हो सक्ते हैं, अथवा कार्मण, तैजस, औदारिक और आहारक हो सक्ते हैं। परन्तु कदाचित् भी एक कालमें एक ही जीवके पांचों शरीर नहीं होते। और वैक्रियक तथा आहारक भी एक कालमें नहीं होते । क्योंकि वैक्रियक तथा आहारकके स्वामीमें विशेष (भेद) है । यह विषय हम आगे कहेंगे ॥ ४४ ॥ निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४५ ॥ सूत्रार्थ:--अन्तका जो शरीर है, वह उपभोगसे रहित है। भाष्यम्-अन्त्यमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्कार्मणमाह । तन्निरुपभोगम् । न सुखदुःखे तेनोपभुज्यते न तेन कर्म बध्यते न वेद्यते नापि निर्जीयत इत्यर्थः ॥ शेषाणि तु सोपभोगानि । यस्मात्सुखदुःखे तैरुपभुज्यते कर्म बध्यते वेद्यते निर्जीयते च तस्मात्सोपभोगानीति । विशेषव्याख्या—यहांपर 'अन्त्य, शब्दसे “औदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि" इस सूत्रके प्रामाण्यसे सबके अन्तमें होनेवाले कार्मण शरीरको आचार्य कहते हैं । इस हेतुसे वह कार्मण शरीर निरुपभोग है, अर्थात उपभोगसे वर्जित है; उसके द्वारा सुख अथवा दुःखका उपभोग नहीं होता। कर्मोंका बन्धन भी कार्मण शरीरसे नहीं होता, कर्मका ज्ञान भी उससे नहीं होता, कर्मोंकी जीर्णता भी उससे नहीं होती । और कार्मणको छोड़के शेष जो औदारिक आदि चार शरीर हैं, वे उपभोगसहित हैं, क्योंकि उनके द्वारा सुख तथा दुःखका उपभोग होता है । कर्मोंका बन्धन होता है, कर्मोंका लाभ वा ज्ञान होता है, तथा कर्मोंकी जीर्णता भी होती है, अर्थात् कर्मोंकी निर्जरा भी शेष शरीरोंसे होती है । इस हेतुसे वे आदिके चार शरीर उपभोग सहित हैं ॥ ४५ ॥ __ अत्राह । एषां पञ्चानामपि शरीराणां सम्मूर्छनादिषु त्रिषु जन्मसु किं व जायत इति । अत्रोच्यते । अब यहांपर कहते हैं कि इन औदारिक आदि पांचों शरीरोंमेंसे संमूर्छन गर्भ तथा उपपात ये जो तीन प्रकारके जन्म कहे हैं, उनमें कौन शरीर कहां अर्थात् किस प्रकारके जन्मसे उत्पन्न होता है ? यहां कहते हैं,: गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ॥ ४६॥ सूत्रार्थः-आदिका शरीर गर्भ तथा सम्मूर्छन रूप जन्मसे उत्पन्न होता है। भाष्यम्-आद्यमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यादौदारिकमाह । तद्गर्भे सम्मूर्छने वा जायते । विशेषव्याख्या-यहां भी सूत्रक्रमके प्रामाण्यसे 'आद्य, शब्दसे आदिमें होनेवाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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