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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्राणातिपाताः दर्शनस्पर्शनप्रत्ययसमन्तानुपातानाभोगा: स्वहस्तनिसर्गविदारणानयनानवकाङ्क्षा आरम्भपरिग्रहमायामिथ्यादर्शनाप्रत्याख्यानक्रिया इति ॥
विशेषव्याख्या–पञ्चम सूत्रमें पठित पाठक्रमके प्रमाणसे यहांपर पूर्वसे साम्परायिक आस्रवका ग्रहण है। उस साम्परायिक आस्रवके पांच अवत, चार कषाय, पांच इंद्रिय तथा पञ्चविंशति ( पच्चीस ) क्रिया, सब मिलके उनचालीस (३९) भेद हैं । उनमें हिंसा, अनृत (मिथ्याभाषण ), स्तेय अर्थात् चोरी, अब्रह्मचर्य (मैथुनप्रसंग) और परिग्रह ये पांच अव्रत हैं । प्रमत्तयोगसे प्राणोंको शरीरसे पृथक् करना यह हिंसा है (अ. १ सू. ८)। इसको आदि लेकर हिंसादिके लक्षण आगे कहेंगे। क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार कषाय हैं । अनंताऽनुबन्धी आदि भेद आगे (अ. ८ सू. १० में ) कहेंगे और स्पर्शन आदि प्रमत्तके पांच इंद्रिय हैं । और क्रियाके पच्चीस भेद हैं। उनमें ये वक्ष्यमाण क्रिया, प्रत्यय यथासंख्यरूपसे जानने चाहिये । जैसे-सम्यक्त्वक्रिया, मिथ्यात्वक्रिया, प्रयोगक्रिया, समादानक्रिया, ई-पथक्रिया, कायक्रिया, . अधिकरणक्रिया, प्रदोषक्रिया, परितापनक्रिया, प्राणातिपातक्रिया, दर्शनक्रिया, स्पर्शनक्रिया, प्रत्ययक्रिया, समंतानुपातानक्रिया, अभोगक्रिया, स्वहस्तक्रिया, निसर्गक्रिया, विदारणक्रिया, अनयनक्रिया, अनवकाङ्क्षाक्रिया, आरम्भक्रिया, परिग्रहक्रिया, मायाक्रिया, मिथ्यादर्शनक्रिया, तथा अप्रत्याख्यानक्रिया, ये ३९ भेद साम्परायिक आस्रवके हैं ॥ ६ ॥ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभाववी-धिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥७॥
सूत्रार्थ-उञ्चालीसभेदसहित इन साम्परायिक आस्रवोंकी तीव्र मन्दादिभावोंके विशेषसे विशेषता है। __ भाष्यम्-सांपरायिकास्रवाणां एषामकोनचत्वारिंशत्साम्परायिकाणां तीव्रभावात् मन्दभावाज्ज्ञातभावादज्ञातभावाद्वीर्यविशेषादधिकरणविशेषाच्च विशेषो भवति । लघुर्लघुतरो लघुतमस्तीवस्तीव्रतरतीब्रतम इति । तद्विशेषाच्च बन्धविशेषो भवति ॥
विशेषव्याख्या-पूर्वोक्त पांच चार आदि भेद सहित जो उन्चालीस भेद साम्परायिक आस्रवोंके कहें है उनकाभी तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभावसे तथा वीर्यविशेष, और अधिकरणविशेषसे विशेष है । अर्थात् न्यूनाधिक तारतम्य है। जैसे कि लघु, लघुतर तथा लघुतम । एसे ही तीव्र, तीव्रतर तथा तीव्रतम हिंसादि । इनके विशेषसे बंधमें विशेषता होती है ॥ ७॥
अत्राह । तीव्रमन्दादयो भावा लोकप्रतीताः वीर्य च जीवस्य क्षायोपशमिकः क्षायिको वा भाव इत्युक्तम् । अथाधिकरणं किमिति । अत्रोच्यते___ अब यहांपर कहते हैं कि तीव्र मंद आदि भाव तो लोकमें प्रतीत (प्रसिद्ध) ही हैं।
और वीर्य्यभी जीवका क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव है यह (अ. २ सू. ४।५ में ) कह चुके हैं। अब अधिकरण क्या है ? इस लिये यह अग्रिम सूत्र कहते हैं
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