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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम्-द्विविधानीन्द्रियाणि भवन्ति । द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि च ॥ तत्र
विशेषव्याख्या-द्रव्येन्द्रिय तथा भावेन्द्रिय इन दो भेदोंसे इन्द्रियां दो प्रकारकी हैं ॥ १६ ॥ उनमें,:
निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥१७॥ सूत्रार्थ:-निर्वृत्तीन्द्रिय तथा उपकरणेन्द्रिय इस रीतिसे दो प्रकार द्रव्य इन्द्रियके हैं।
भाष्यम्-निर्वृत्तीन्द्रियमुपकरणेन्द्रियं च द्विविधं द्रव्येन्द्रियम् । निर्वृत्तिरङ्गोपाङ्गनामनिर्वर्तितानीन्द्रियद्वाराणि कर्मविशेषसंस्कृताः शरीरप्रदेशाः । निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलगुणनिर्वर्तनेत्यर्थः । उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च । निर्वर्तितस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति ॥
विशेषव्याख्या-निवृत्ति तथा उपकरण ये दोनों मिलकर द्रव्येन्द्रिय हैं । यहां पर निर्वृत्ति शब्दका अर्थ रचना है, और वह रचना इस प्रकार है कि अङ्गोपाङ्गनाम कर्मके उदयसे इन्द्रियोंके अवयव होते हैं; और निर्माणकर्मके उदयसे शरीरके प्रदेशोंकी रचना होती है । इस रीतिसे अङ्गोपाङ्गनाम तथा निर्माणकर्म इन दोनों कर्मविशेषोंसे द्रव्येन्द्रियकी रचना होती है । द्रव्येन्द्रियोंकी रचना अङ्गोपाङ्ग तथा निर्माणकर्मके आधीन होती है । तात्पर्य यह कि नेत्र आदि इन्द्रियोंकी बाह्याभ्यन्तर रचनाको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । बाह्य तथा अभ्यन्तर भेदसे उपकरण दो प्रकारका है। यह उपकरण निर्वर्तित (रचित) इन्द्रियोंका अनुपघात और अनुग्रहसे उपकारी होता है । अर्थात् रचित अङ्गोंका किसी प्रकारसे उपघात नहीं होने दे वह बाह्य, और उनको निज२ कार्यों में प्रवृत्त होनेमें जिसका अनुग्रह होता है, वह अभ्यन्तर उपकरण है। जैसे,:आंखका बाह्य उपकरण अक्षि पलक आदि है, अभ्यन्तर आलोकादिका दोषरहित आगमन आदि । इस प्रकार उपकरण सहायक व उपकारी होता है ॥ १७ ॥
लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥ १८॥ सूत्रार्थ:-लब्धि तथा उपयोग ये दोनों भावेन्द्रिय हैं। भाष्यम्-लब्धिरुपयोगश्च भावेन्द्रियं भवति । लब्धिर्नाम गतिजात्यादिनामकर्मजनिता तदावरणीयकर्मक्षयोपशमजनिता चेन्द्रियाश्रयकर्मोदयनिर्वृत्ता च जीवस्य भवति । सा पञ्चविधा । तद्यथा । स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः रसनेन्द्रियलब्धिः घ्राणेन्द्रियलब्धिः चक्षुरिन्द्रियलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरिति ॥
विशेषव्याख्या-लब्धि वह है, जो जीवके गति तथा जातिआदि कर्मोंसे तथा उनके अर्थात् गतिजात्यादिके आवरण करनेवाले जो कर्म हैं, उनके क्षयोपशमसे और इन्द्रियोंके आश्रयभूत कर्मोके उदयसे उत्पन्न हो । वह जीवकी लब्धि पांच प्रकारकी है; जैसे,—स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि १, रसनेन्द्रिय लब्धि २, घ्राणेन्द्रिय लब्धि ३, चक्षुरिन्द्रिय लब्धि ४, और श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि ५॥ १८ ॥
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