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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सत् है । क्योंकि घटपर्यायका व्यय, कपालपर्यायका उत्पाद और मृत्तिकारूपसे ध्रौव्य है ।
और एकान्तरूपसे ध्रौव्य माननेसे उस वस्तुका उसी प्रकार एक स्वभाव होनेसे अवस्थाओंका भेद अयुक्त होगा; और सब वार्ता पूर्वके समान यहांभी समझलेनी । इस प्रकार व्यवहारनयसे तथा मनुष्य आदि स्थिति द्रव्यको उद्देशकरके यहां सत्का लक्षण दर्शाया गया । और निश्चयनयसे तो प्रतिसमय पदार्थ उत्पत्ति आदिसहित होनेसे अवस्थाओंके भेदकी सिद्धि है । और यदि उत्पाद तथा व्यय आदि युक्त वस्तु न हों तो पूर्वपर अवस्थाओंका भेद न सिद्ध होगा और इस विषयमें ऐसाही अन्यत्र कहाभी है___ संपूर्ण पदार्थमात्रमें चिति तथा अपचिति अर्थात् वृद्धि तथा ह्रासके विद्यमान होनेसे
और आकृति ( व्यक्ति) तथा जातिके व्यवस्थापनसे क्षण २ में भेद नियत है और द्रव्यरूपसे विशेषभी नहीं है ॥ १ ॥ नरक आदि गतियोंका विभेद तथा संसार और मोक्षका भेदभी वस्तुओंके अवस्थाओंके भेदसेही नियत है और इन गतियोंके तथा संसार और मोक्षके भेद होनेमें हिंसा आदि तथा सम्यग्दर्शन आदि हेतु मुख्य है ॥ २ ॥ और नरक आदि गतियोंके भेद तथा संसार और मोक्षके ये सब भेद आदि तभी उपपन्न अर्थात् युक्त होसकते हैं जब प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है। अर्थात् जब अनेकान्तवादसे यह निश्चित है कि वस्तुमें पूर्वपर्यायका व्यय (नाश) और उत्तरपर्यायका उत्पाद तथा मूल द्रव्यादिरूपसे ध्रौव्य है । जैसे मनुष्यगतिमें मनुष्यपर्यायका व्यय और देवगति प्राप्त होनमें देवपर्यायकी उत्पत्ति तथा जीवत्वरूपसे जब ध्रौव्य है तभी सब युक्त है; और उत्पाद आदिरहित वस्तुमें उत्पाद आदिके अभावसे नरक गति आदिके भेद तथा संसार और मोक्षके भेद ये सब नयसे नहीं युक्त होसकते ॥ ३॥ और उपादानकारण ( हेतु) के विना ध्रौव्यरूप एक वस्तुमें उत्पाद नहीं हो सकता, और ऐसेही सदा विक्रिया (सदा अध्रौव्य) सेभी उत्पाद नहीं हो सकता; इसलिये उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त वस्तुमें ही यह उत्पाद आदि होता है ॥ ४ ॥ और सिद्ध पर्यायमेंभी सिद्धत्वरूपसे उत्पाद है, और इस जीवके संसारका अभाव होनेसे संसारपर्यायका व्यय जानना चाहिये । तथा जीवत्व अर्थात् शुद्ध जीवत्वरूपसे ध्रौव्यभी है ॥२९॥ इसप्रकार सब कुछ उत्पाद आदि त्रितय (तीनों) से युक्तही है ॥ ५॥ (यह भाष्य
१ एक पुस्तकमें अग्रिम प्रान्त (फुटनोट )में ऐसी टिप्पणी है कि इस २९ वें सूत्रके भाष्यका पाठ दो प्रकारका है । एक तो "उत्पादव्ययौ ध्रौव्यं चैतत्रितययुक्तं" इत्यादि रूपसे । यह सिद्धसेनजीकी वृत्तिमें है । और द्वितीय पाठ इस प्रकार है "उत्पादव्ययौ ध्रौव्यं च सतो लक्षणम्" यहां “यदिह" इत्यादि जो कोष्ठ के भीतर है वह सब सिद्धसेनकी वृत्तिमें है । और किसी पुस्तकमें भाष्यका आरम्भ ऐसे है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" अर्थात् उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य ये तीनों एक ही पदमें पढ़े हैं। और कहीं "उत्पादव्ययाभ्यां ध्रौव्येण च युक्तं सत्" ऐसा पाठ है । सर्वथा सूत्रका यह अर्थ है कि उत्पाद-आदिमान् अर्थात् उत्पादादिसहित वस्तु सत् है ।
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