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________________ १३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मनुष्य देव आदि पर्यायरूपसे होता है । और देवत्व मनुष्यत्वादि पर्यायकी उपलब्धि स्वभावरूप होनेसे विना किसी विरोधके सिद्धही है । कदाचित् कहो कि संसारी मनुष्य देव आदि पर्यायका भाव जो आत्माको होता है यह भ्रान्ति है तो उसके भ्रान्तत्व होनेमें कोई प्रमाण नहीं है । और जब योगियोंके ज्ञानको प्रमाण मानो तब तो अवस्थाभेद प्रतीत हुआ । इस हेतुसे यह अवस्थाओंका भेद ऐसाही है । और यदि अन्यथा मानो तो मनुष्यके देवत्व आदि पर्याय होही नहीं सकते । फिर यमनियमादिका पालनभी निरर्थक है । और ऐसा होनेसे "अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरीका अभाव ), ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये पांच यम हैं" तथा "शौच, सन्तोष, तप, खाध्याय (पठन पाठन ), तथा ईश्वरप्रणिधान, ये पांच नियम हैं" इत्यादि शास्त्र (योगदर्शनके) वचन केवल कथनमात्रके हैं, अर्थात् व्यर्थ हैं । इस लिये सर्वथा ध्रौव्य आत्मस्वरूप नहीं है किन्तु मनुष्य देव सिद्ध आदि पर्यायोंसे अवस्थाभेद है । और ऐसेही सर्वथा अधौव्यरूपभी आत्माके माननेसे हानि है । क्यों कि जब सर्वथा वह आत्मा न रहा तब यम नियम आदिके फलभोग किसको होंगे? इस हेतुसे यहभी निश्चित हुआ कि यथार्थमें हेतुपूर्वक आत्मस्वभावमें अवस्थान्तरकी प्राप्ति होती है । और अहेतुक मानो तो जो स्वभाववाली अवस्था है उसके भाव वा अभावका सर्वदा प्रसङ्ग होगा । क्यों कि अहेतुकता होनेंमें कोई विशेषता नहीं है । और हेतुस्वभावतासे ऊर्ध्वतद्भाव ( देवत्वादि भाव) नहीं होता । क्योंकि हेतुस्वभाव होनेसे एकान्तरूपसे उसको ध्रौव्य होजायगा । और जब हेतुसे देवत्व मनुष्यत्वादि स्वभाव होता है और जिस हेतुके अनन्तर वैसे स्वभाव (मनुष्यत्व वा देवत्वादि स्वभाव ) की सत्ता होती है तब ध्रुव आत्मरूपका अवश्य अन्वय है अर्थात् सब दशामें संबन्ध है, क्योंकि उसी आत्माहीका वैसा स्वभाव वा पर्याय हो जाता है। ऐसा होनेसे किसीने जो यह कहा कि तुला (तराजू )की डांडी जैसे जिस समय एक ओर ऊंची होती है उसी समय दूसरी ओर नीची होती है ऐसेही हेतु और उस हेतुसे उत्पन्न होनेवाले फलके व्यय तथा उत्पादकी एक कालमेंही सिद्धि होती है और यदि ऐसा न हो तो उनसे भिन्न अन्य विकल्पोंसे सम्बन्ध न होगा । यह कथन संगत नहीं है। क्योंकि एकही कालमें हेतु और फलकी और व्यय तथा उत्पादकी सिद्धि 'माननेसे मनुष्य आदिसे देवत्वकी प्राप्ति होती है इस आगममार्गकी विफलता प्राप्त हुई । क्योंकि जिस समय देवत्वप्राप्तिमें हेतुरूप मनुष्यजन्मके यम नियम आदि हैं उस समय फलकी प्राप्ति नहीं है । और इसी रीतिसे अब (हेतुविशेषसे ) यह सम्यग्दृष्टि है, सम्यक् संकल्प है, सम्यग्वाग् , सम्यग्मार्ग, सम्यगार्जव, सम्यग्व्यायाम, सम्यक्स्मृति, तथा सम्यक्समाधि, इत्यादि वचन व्यर्थ होंगे। इसी रीतिसे घटपर्यायके व्यय (नाश ). वाली मृत्तिकासे कपालरूप पर्यायके उत्पाद होनेसे उत्पाद, व्यय, तथा धौव्य-युक्त होनेसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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